लगता है कि मुंबई में आतकियों की हरकत से हम कोई सबक नहीं सीख ऱहे हैं। अमेरिका में 9-11 के बाद और बाद में ब्रिटेन में हमलों के बाद आतंकवाद से निपटने की जैसी इच्छा शक्ति वहां की जनता में दिखाई पड़ी थी, वैसी अपने यहां नहीं दिख रही। 40 घंटे बीतने को हैं, लेकिन सुरक्षा बलों के अलावा सभी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। यह भी कह सकते हैं कि चिंता को जुवां नहीं मिल रही है। ऐसा भी नहीं है कि सभी नेता-अभिनेता शोकग्रस्त हैं, पर सामने आकर देशवासियों से अपील तक करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। आखिर आतंकवाद को राष्ट्रीय स्वाभिमान के साथ क्यों नहीं जोड़ा जा पा रहा है।
चाहे वह पाकिस्तानी आतंकवाद हो या और हमारे देश में ही बैठे लोगों द्वारा की जा रही करतूतें हों। आतंकवाद हमारी राजनीति का मुद्दा तो रहा, लेकिन चिंता की मुख्य वजह नहीं बन पाया। उदारीकरण ने हमारी सोच को संकुचित कर दिया है। हमारे लिए समाज और देश के मायने भी बदल गए हैं। राजनीतिज्ञों ने जनता का जितना इस्तेमाल अपने लाभ के लिए किया, जनता उससे कहीं ज्यादा उनका इस्तेमाल करने की सोचने लगी। हालांकि इसमें जनता हार गई, पर उसने कहना शुरू कर दिया कि राजनीति ने देश का बंटाधार कर दिया है। यह कहने वालों की भी कमी नहीं है कि देश को मरे हुए लोग चला रहे हैं।
बात सही भी है। याद कीजिए देश का वह दौर, जब उत्तर प्रदेश के सरकारी कार्यालयों, अस्पतालों और रोडवेज की बसों पर एक तरफ लिखा रहता था कि परिश्रम के अलावा और कोई रास्ता नहीं। दूसरी तरफ अनुशासन ही देश के महान बनाता है, संदेश होता था। अब कड़ी मेहनत, पक्का इरादा, दूर दृष्टि जैसे प्रेरणादायी स्लोगन ही खत्म नहीं हो गए। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दे भी अपना महत्व खो चुके हैं। बहुतों को तो यह भी पता नहीं होगा कि ये सब बातें किसने कही थीं। भारीत 21वीं सदी में ले जाने का सपना देखने और दिखाने वाले राजीव गांधी भी असमय काल का शिकार हो गए। बाद में बुनियादी बातें कभी नहीं कहीं गईं। इंडिया शाइनिंग और फील गुड का गुब्बारा फूलने और उड़ने से पहले ही फट गया .
क्या माना जाए कि देश को मरे हुए नेता ही चलाते रहे हैँ। आज के नेताओं को मजबूरी के चलते भी कोई नेता नहीं मान पा रहा है। गरीबी, बेरोजगारी के मामले में तो नेता कुछ भी बोलने से शायद इसलिए ही बच रहे हैं। यह हमले नेताओं के प्रति बढ़ते हुई अनास्था का ही नतीजा है।
यह भाषण नहीं है। इस समय देश को एकजुटता की जरूरत है। ऐसी ताकत की आश्यकता है, जो दुनिया को बता दे कि आतंकवाद का मुकाबला हम जाति और संप्रदाय में बटे बगैर करेंगे। चूकने पर हम एक बार फिर से सहानुभूति (अंग्रेजी में सिम्पैथी) के पात्र बन जाएंगे। जब हमें आयुर्वेद,एलोपैथी और होम्यैपैथी का इलाज मालूम है, तो सिम्पैथी की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
शुक्रवार, 28 नवंबर 2008
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2 टिप्पणियां:
यह सही है कि हम राष्ट्रीय चरित्र खो रहे है। नैतिक शिक्षा की पढ़ाई खतम होती जा रही है। दादी, नानी,दादा अम्मा बच्चो को किस्से कहानियों के माध्यम से हमे देशा भकति , नैतकिता का पाठ पढाते थे, वह सब खतम हो गया । दादी नानी की कहानी सुनने की बचचो को फुुरसत नहीं। मां जिंदगी की जदोजहद मे लगी रहती है।एेसे मे बच्चो को शिक्षा देने का सहारा टीवी ही रह गया है। वह क्या शिक्षा दे रहा है इस पर किसी शायर ने कहा है
देलीविजन की बदोलत फसले जल्दी पक गईंं
बच्चा बच्चा शाहर का बालिग नजर आने लगा।
वोट की राजनीति ने आतंकी हमलों से निपटने की दृढ इच्छाशक्ति खत्म कर दी है, खुफिया तंत्र की नाकामयाबी की वजह भी सत्ता है, संकीर्ण हितों- क्षेत्र, भाषा, धर्म, जाति, लिंग- से ऊपर उठ कर सोचने वाले नेता का अभाव तो समाज को ही झेलना होगा, मुंबई हमलों के बारे में सुनने के बाद मैं काफ़ी बेचैन हूँ. सवाल है ख़ुफ़िया तंत्र की नाकामी का या कुछ और. इसे मैं सिर्फ़ राजनीतिक नाकामी कहूंगा जिसकी वजह से भारत में इतनी बड़ी आतंकवादी घटना हुई.
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