शुक्रवार, 28 नवंबर 2008
बच्चों को बताना ही पड़ेगा...
करीब डेढ़ दशक से ओजोन परत में छेद, ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण के बारे में भी बच्चे किसी भी आम नागरिक से ज्यादा जानने लगे हैं। ये जाररूकता बच्चों में इसलिए आ पाई, क्योंकि उन्हें पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने की प्रेरणा पूरे मनोयोग से दी गई। शिक्षकों ने उन्हें पर्यावरण के हर पहलू से से बकायदा परिचित कराया गया। हम भले ही पालीथिन का इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहे हैं, पर हमारे बच्चों को इससे होने वाले नुकसानों के बारे में सब कुछ पता है। प्राइमरी के बाद के विद्यार्थियों को सेक्स एजूकेशन दिए जाने पर थोड़ी-बहुत ना-नुकर के बाद करीब-करीब सहमति बन रही है।
ऐसे में जरूरी हो जाता है। टीवी पर मुंबई की लाइव मुठभेड़ और कमांडो कार्रवाई देख रहे नौनिहालों को आतंकवाद पर उसी तरह से बताया जाए, जैसे हम इतिहास को पढ़ाते हैं। बच्चों को बताना होगा कि अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और ब्रिटेन के मेट्रो रेलवे पर हमले किस नापाक मकसद के लिए किए गए थे। उनके लिए यह जानना भी बेहद जरूरी होगा कि 1993 में मुंबई में पहली बार हुए सीरियल बम ब्लास्ट के पीछे हमारी क्या खामियां रही थीं। इन्हें हम आज तक शायद दुरुस्त नहीं कर पाए हैं। 1999 में हमें किन हालात में अजहर मसूद को जम्मू जेल से रिहा कराने के बाद तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने कंधार ले जाकर छोड़ा था। हो सके तो यह भी बताया जाए कि मालेगांव विस्फोट में हिंदू आतंकियों और सेना की क्या भूमिका थी।
कोई रहनुमा नहीं आएगा...
चाहे वह पाकिस्तानी आतंकवाद हो या और हमारे देश में ही बैठे लोगों द्वारा की जा रही करतूतें हों। आतंकवाद हमारी राजनीति का मुद्दा तो रहा, लेकिन चिंता की मुख्य वजह नहीं बन पाया। उदारीकरण ने हमारी सोच को संकुचित कर दिया है। हमारे लिए समाज और देश के मायने भी बदल गए हैं। राजनीतिज्ञों ने जनता का जितना इस्तेमाल अपने लाभ के लिए किया, जनता उससे कहीं ज्यादा उनका इस्तेमाल करने की सोचने लगी। हालांकि इसमें जनता हार गई, पर उसने कहना शुरू कर दिया कि राजनीति ने देश का बंटाधार कर दिया है। यह कहने वालों की भी कमी नहीं है कि देश को मरे हुए लोग चला रहे हैं।
बात सही भी है। याद कीजिए देश का वह दौर, जब उत्तर प्रदेश के सरकारी कार्यालयों, अस्पतालों और रोडवेज की बसों पर एक तरफ लिखा रहता था कि परिश्रम के अलावा और कोई रास्ता नहीं। दूसरी तरफ अनुशासन ही देश के महान बनाता है, संदेश होता था। अब कड़ी मेहनत, पक्का इरादा, दूर दृष्टि जैसे प्रेरणादायी स्लोगन ही खत्म नहीं हो गए। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दे भी अपना महत्व खो चुके हैं। बहुतों को तो यह भी पता नहीं होगा कि ये सब बातें किसने कही थीं। भारीत 21वीं सदी में ले जाने का सपना देखने और दिखाने वाले राजीव गांधी भी असमय काल का शिकार हो गए। बाद में बुनियादी बातें कभी नहीं कहीं गईं। इंडिया शाइनिंग और फील गुड का गुब्बारा फूलने और उड़ने से पहले ही फट गया .
क्या माना जाए कि देश को मरे हुए नेता ही चलाते रहे हैँ। आज के नेताओं को मजबूरी के चलते भी कोई नेता नहीं मान पा रहा है। गरीबी, बेरोजगारी के मामले में तो नेता कुछ भी बोलने से शायद इसलिए ही बच रहे हैं। यह हमले नेताओं के प्रति बढ़ते हुई अनास्था का ही नतीजा है।
यह भाषण नहीं है। इस समय देश को एकजुटता की जरूरत है। ऐसी ताकत की आश्यकता है, जो दुनिया को बता दे कि आतंकवाद का मुकाबला हम जाति और संप्रदाय में बटे बगैर करेंगे। चूकने पर हम एक बार फिर से सहानुभूति (अंग्रेजी में सिम्पैथी) के पात्र बन जाएंगे। जब हमें आयुर्वेद,एलोपैथी और होम्यैपैथी का इलाज मालूम है, तो सिम्पैथी की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
बुधवार, 26 नवंबर 2008
मरने वाले खुशकिस्मत हैं...
आज मध्यप्रदेश में मतदान हो रहा है। राजस्थान और दिल्ली में मतदान होना है। क्या राजनीतिक लाभ के लिए कोई राजनीतिक दल भी यह काम कर सकता है। बदकिस्मत हैं, वे लोग जिन्हें न तो आतंकियों की मजबूत गोली लगी और न ही पुलिस की गोलियां इनकी जान ले पाईं। इनके दुर्दिन आ गए हैं। घायलों को अपने जख्मों से ज्यादा पुलिस और अन्य विभाग के अफसरों द्वारा पूछे जाने वाले सवालों की चिंता करनी पड़ेगी। वे पूरे मामले में चाहकर भी निर्दोष नहीं रह पाएंगे। अस्पतालों और नर्सिंग होम्स में उनका इलाज न जाने कब ठप पड़ जाएगा, क्योंकि कोई मंत्री और नेता वहां टपकने वाला होगा। उन्हें मंत्री जी और नेताओं के घड़ियाली आंसू देखने पड़ेंगे। झूठे दावे और खुद उसके लिए कोरे आश्वासन बरदाश्त करने पड़ेंगे। उनको और उनके घर वालों को उनका उद्धार करने के सपने दिखाए जाएंगे। इस काम को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनियां गांधी, भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार लाल कृष्ण आडवाणी सभी करेंगे। चुनावी मुद्दा बनाने की बात की जाएगी। दिल्ली में विस्फोट के बाद अपने सूट्स को लेकर चर्चा में रहे गृह मंत्री शिवराज पाटिल शायद फिर दोहरा दें कि पोटा को फिर से नहीं लागू किया जाएगा। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह आतंकी गतिविधियों के लिए तुरंत पाकिस्तान को आड़े हाथ लेते हुए उस पर हमला करने की भी बात करेंगे। वह तब भूल जाएंगे कि उनकी पार्टी के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ आर-पार की लड़ाई का ऐलान किया था और लाहौर पहुंच गए थे।
कुछ दिन तक ये सब घायलों को ही नहीं, देशभर के आहत लोगों को मजबूरी में सुनना होगा। कुछ स्कूलों के बच्चे मरने वालों की याद में धर्मस्थलों, सार्वजनिक स्थानों और समुद्र और अन्य नदियों के किनारे मोमबत्तियां जलाकर मृत आत्माओं की की शांति के लिए आयोजन करेंगे। टीवी और अखबार वाले जब पूरी व्यवस्था में खामियों और अफवाहों का जिक्र करते-करते थक जाएंगे, स्पेशल कमेंट देने वाले खूबसूरत और प्रतिष्ठित चेहरों के विचार सूख जाएंगे, तो सब कुछ भुला दिया जाएगा। कुछ घायलों की देर से होने वाली मौत खबर नहीं बन पाएगी। घायलों में अगर कोई जीवन भर के लिए अपाहिज हो गया होगा, तो उसको मुआवजा भी शायद ही मिले। अगले साल 26 नवंबर पर मरने वालों की बरसी मनाई जाएगी। इसी बहाने उनको याद कर लिया जाएगा, लेकिन घायल लोगों को तब भी शायद ही याद किया जाए।
शुक्रवार, 21 नवंबर 2008
सबके सब लाचार...
अमेरिका से शुरू हुई मंदी की मार भारत में भी पहुंच गई है। प्रधानमंत्री भरोसा दिला रहे हैं कि हमारा देश मंदी से मुकाबला करने में सक्षम है। हम इस पर पार लेंगे। यों भी मंदी हो या महंगाई सरकारों पर इससे खास फर्क पड़ता नहीं। उन्हें तो पांच साल के लिए जनता अपनी किस्मत का फैसला करने के लिए चुन ही लेती है। उनका काम आंकड़ेबाजी में देश को उलझा देना भर रहता है। आश्चर्य की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री महंगाई की दर 12 फीसदी से ऊपर पहुंचने पर भी विकास दर आठ फीसदी रहने का आश्वासन देते थे। आज विश्वव्यापी मंदी के दौर में वह इससे पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। यह तब जब दुनिया के ज्यादातर देशों में यह दर चार फीसदी के आसपास आ गई है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री भी हैं। वह वित्त मंत्री से पहले रिजवर् बैंक के गवर्नर भी रह चुके हैं। बतौर प्रधानमंत्री उनके काम करने के तरीके पर व्यंग्य भले ही कितने भी किए गए हों, सवाल कम ही उठे हैं। लेकिन महंगाई और मंदी के बाद उनके बयानों पर विश्वास आर्थिक क्षेत्र के दिग्गज भी नहीं कर पा रहे हैं। यह अनायास नहीं है। शेयर बाजार लगातार गिरता ज्यादा है, संभलता कम। कच्चे तेल के मूल्य में कमी आ रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां छंटनी कर रही हैं। लोग डरे-सहमे हुए हैं। माना कि ऋणं कृत्वां घृतमं पिवेत... की सोच देने वाले चार्वाक के भारत में मितव्ययता की प्रवृत्ति है। यहां लोग चार पैसा कमाते हैं, तो आने वाले दिन के लिए एक पैसा सहेज कर रखते हैं।
लेकिन ध्यान रहे कि मनमोहन सिंह के वर्ष 1991 की नरसिंहराव सरकार में वित्त मंत्री बनने के बाद से देश में उदारीकरण की बयार चल निकली थी। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए के शासनकाल में इसका दूसरा दौर शुरू हुआ था। बाद में प्रधानमंत्री बनने पर मनमोहन सिंह ने इसे और गति दे दी। बैंकों ने कर्ज देने में कंजूसी नहीं की। लोन चाहिए। कुछ औपचारिकताएं पूरी करिए। मकान के मालिक बन जाइए। कार खरीद लीजिए। लोगों ने पर्सनल लोन लेकर शेयर खरीद लिए। कुछ सयानों ने फिक्स्ड डिपाजिट कर दी। इस जाल रूपी सुविधा ने आम आदमी में संचय की प्रवृत्ति को रोक दिया। अब बाहर से चमकने वाले लोग कितने कर्ज में लदे हुए हैं,अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसीलिए महंगाई को लेकर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया ही आकर रह गईं। कहीं कोई जन आंदोलन नहीं हुआ। कभी दिल्ली की सरकार को हिला देने वाले प्याज की महंगाई अब आम आदमी को हो सकता है, याद भी न रही हो। उत्तर प्रदेश में आलू किसान अब मंदी की मार झेल रहा है। किसानों ने कोल्ड स्टोरों से आलू निकालने पर उतनी कीमत तक नहीं निकल रही है कि वे उसे बेचकर उसका किराया भी अदा कर सकें। किसे चिंता है।
यूपीए सरकार तो लोकसभा चुनाव की तैयारियों में लगी हुई है। केंद्रीय कर्मचारियों की तनख्वाह बढ़ गई है। उनकी छंटनी न करने का भरोसा दिया जा रहा है। केंद्र को मालूम है कर्मचारियों की नाराजगी की मतलब। संभव है कि एक-दो महीने में पेट्रोल-डीजल की कीमतें भी कम कर दी जाएं। जिस दिन ये हो, समझ लेना कि दो महीने में चुनाव हो जाएंगे। वैसे भी लोकसभा के चुनाव मई में होने ही हैं। तो फिर आते हैं,मुद्दे की बात पर। मनमोहन सिंह चुनावी भाषण की तैयारी करने लगे हैं। इसमें परमाणु करार का मुद्दा शायद ज्यादा लोगों को समझ नहीं आएगा। मंदी के बादल छंटे नहीं। महंगाई फिर सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी होगी।
शुक्रवार, 14 नवंबर 2008
हम तो आहत हैं...
बुधवार, 12 नवंबर 2008
बच्चों का एक ही दिन क्यों
मंगलवार, 11 नवंबर 2008
आभार, नमस्कार
गुरुवार, 6 नवंबर 2008
अमेरिका में चुनाव
इसके उलट भारत में वोटिंग को लेकर हर उस व्यक्ति की रुचि घटती जा रही है, जो खुद के जागरुक होने का दावा करते हुए नियम-कानून के पालन करने वालों में सबसे ऊपर रखता है। आपातकाल और 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद हुए चुनाव में जरूर भारी मतदान हुआ। बाद के चुनावों में मतदान के आंकड़ों से तो यह नहीं लगता कि भारतवासियों को लोकतंत्र में विश्वास रह गया है। देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली तक का हाल बुरा है। जब से दिल्ली में विधानसभा का गठन हुआ है, तीन बार चुनाव हो चुके हैं। शायद ही कभी मतदान 50 फीसदी से ज्यादा गया हो।
सरकारों और चुनाव आयोग का इसका अहसास है। एक दिन टीवी पर दिखाया जा रहा था कि दिल्ली में मतदान में भाग लेने के लिए मुहिम चलाई जा रही है। कहा जा रहा है कि मतदाता पहचान पत्र आपके बैंक एकाउंट खोलने, ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने, पासपोर्ट हासिल करने के लिए ही नहीं है। इसका इस्तेमाल वोट डालने के लिए भी करें। देख-सुनकर अच्छा लगा कि अगर लोगों को एेसे ही कुछ और अहसास दिलाए गए, तो मतदान का प्रतिशत बढ़ जाएगा। क्या सरकार कानून बनाकर मतदान को हर नागरिक के लिए जरूरी करने के बारे में नहीं सोचेगी।