मंगलवार, 15 दिसंबर 2009
बहन जी कहां जाएंगी...
अब आते हैं चिंता के पहलुओं पर। हुआ यह कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमत्री आदरणीय बहन जी कुमारी मायावती जी ने प्रधानमंत्री ड. मनमोहन सिंह को दो चिट्ठियां लिखी हैं। दोनों पत्र उन्होंने पूर्व केंद्रीय श्रम मंत्री के चंद्रशेखरराव को केंद्र सरकार द्वारा आंध्र प्रदेश से अलग कर तेलंगाना राज्य बनाने के आश्वासन के बाद लिखे हैं। पहले पत्र में उन्होंने बुंदेलखंड और हरित प्रदेश बनाने के लिए पत्र लिखा, जबकि दूसरे पत्र में उन्होंने पूर्वांचल की मांग की। मेरे सामने संकट यह है कि मैं तीनों नए राज्यों वाले प्रस्तावित जिलों में नहीं आता हूं। मेरा गृह जनपद फर्रुखाबाद है। यहां के बारे में एक कहावत है- खुल्ला खेल फरक्खावादी-। इस वजह से ही मैं यह लिख भी रहा हूं।
बहन जी से मैं जानना यह चाहता हूं कि मेरा जिला अब किस प्रदेश में रहेगा। तीन नए राज्यों में तो है नहीं। क्या इसका मतलब यह है कि उत्तर प्रदेश के चार टुकड़े होंगे। बहन जी, लगे हाथ कृपया यह भी बता दें कि क्या आपकी उत्तर प्रदेश का नाम भी तो बदलने की योजना नहीं है। इस प्रदेश की जनता ने आपको चार बार सीएम बनाया है, तो आपको इसे चार टुकड़ों में बांटने का हक है। शायद आप भूल गईं कि बुंदेलखंड की तरह से यूपी में बरेली मंडल वाले इलाके को रुहेलखंड भी कहा जाता है। यहां कोई माई का लाल पैदा नहीं हुआ कि वह अलग राज्य की मांग उठाता। आपको इसीलिए याद भी नहीं रहा होगा। चलो छोड़िए। आप विधानसभा में इसके लिए भी प्रस्ताव पारित करवा देना। वहां तो आपका बहुमत है। जब तक आप यह प्रस्ताव लाएं, तब तक शायद विधान परिषद में भी आपकी सीटें बढ़ जाएंगी। सारी विघ्न-बाधाएं खत्म हो जाएंगी। हां, आप दूरंदेशी हैं, सो इन राज्यों की नई राजधानियों का जिक्र करना मत भूलिएगा। लखनऊ- जिसके बारे में कहा जाता था कि लखनऊ हम पर फिदा, हम फिदा ए-लखनऊ। अब कहीं का रहेगा या नहीं। यहां की भूलभुलैया, इमामवाड़े की कौन सुध लेगा। विधानसभा भवन में तो आप कुछ वे मूर्तियां लगवा देना, जो अंबेडकर पार्क में लगने से रह गई हों। इन प्रतिमाओं को लखनऊ आने वाला, रहने वाला हर आदमी जरूर देखेगा, क्यों ये शहर के बीचोंबीच है। गोमती नगर जाने वाले सभी रास्ते इधर से ही जाते हैं। लेकिन आपको सलाह देने के चक्कर में एक बात तो भूल ही गया कि बुंदेलखंड के लिए आपने मप्र के भइया सीएम शिवराज सिंह चौहान से बात कर ली है या नहीं। मैं समझता हूं पूर्वांचल में आपने कुछ बिहार के भी जिले शामिल किए हैं, तो बिहारी बाबू नीतीश कुमार से आपकी बात हो ही गई होगी।
चलिए अब आखिरी, लेकिन महत्वपूर्ण बात करते हैं। अभी आपकी करीब ढाई साल की सरकार (मंशा ठीक समझते हुए इसे कार्यकाल समझा जाए)बची है। आपके पास बहुमत है। मान लीजिए, केंद्र सरकार ने आपसे पंगा नहीं लिया (लेगी भी नहीं। आप उसे समर्थन जो दे रही हैं। हालांकि मुलायम सिंह के साथ केंद्र का प्यार उतना नहीं है ), तो नए राज्य बन जाएंगे। दो में थोड़ी दिक्कत हो सकती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश (आपने हरित प्रदेश का प्रस्ताव कैसे कर दिया, समझ से परे है। यह तो रालोद के सब कुछ और आपको पानी पी-पीकर कोसने वाले चौधरी अजित सिंह का मुद्दा रहा है। ब्रज प्रदेश की मांग बहुत पुरानी है। आप इसे उठाकर (चुरा नहीं कहा मैंने)फिर गरमा सकती थीं। इससे सर्वजन की सरकार का आधार और मजबूत हो सकता था। इससे मथुरा और अलीगढ़ इलाकों में लोग राधे-राधे की जगह आपके जयकारे लगा सकते थे। अभी वक्त है। इस पर जरूर सोचिएगा।
एक बात और। यह 80 लोकसभा सीटों और 403 विधानसभा सीटों वाले उप्र (आपकी मानी गई तो फिलहाल)के विभाजन के बाद आप कहां विराजमान होंगी। विस में मौजूदा संख्या बल के हिसाब से तो चारों राज्यो में आपकी सरकार होगी। अगर आप लखनऊ में ही रहकर जनसेवा करना चाहती हैं,तो आपके कौन से विश्वस्त दूसरे राज्यों में नीला झंडा फहराएंगे। यह गोपनीय बात है, लेकिन पब्लिक जानना चाहती है। क्या बांदा वाले मंत्री जी बुंदेलखंड जाएंगे। अभी-अभी जीत कर फिर लाल बत्ती पाने वाले क्या पूर्वांचल संभालेंगे। पश्चिमी उप्र तो आपका दावा मजबूत है। गौतमबुद्ध नगर तो आपका घर है। प्लीज आप जल्दी ये बताइगा। नाराज मत होइए। हम यह बात इसलिए कह रहे हैं कि भरोसा नहीं लोग कब कहने लगें- दिल के टुकड़े-टुकड़े करके मुसकराते चल दिए...। आगे नहीं लिखूंगा। माफी मांगनी पड़ सकती है।
सोमवार, 7 दिसंबर 2009
अब अरण्य कांड की बात करो...
शौरी के मौजूदा बयान का क्या मतलब निकाला जाए। पार्टी के कार्यकर्ता समझ नहीं पा रहे हैं। खासतौर वे लोग, जो छह दिसंबर को राष्ट्रीय गौरव का दिन मानते रहे हैं। भाजपा में अयोध्या को लेकर लाल कृष्ण आडवाणी से लेकर विहिप के अशोक सिंघल और शिवसेना के बाल ठाकरे तक के जो बयान आ रहे हैं, उनसे लगता है कि इनमें से किसी ने संत तुलसीदास की श्री राम चरित मानस नहीं पढ़ी है। इन्हें नहीं मालूम कि अयोध्या कांड के बाद अरण्य कांड आता है। इसका मतलब है कि भटको, विचरण करो। अर्थात सत्य की तलाश करो। वैसे भाजपा पर यह बात सच बैठ रही है। अयोध्या कांड के (खल)नायक कल्याण सिंह छह दिसंबर, 1992 के बाद हिंदू स्वाभिमान के प्रतीक बन गए थे। तब तक वह आम राय से चलते थे। बाद में वह भटक गए। उनके लिए एक ही राय (बताना जरूरी है क्या)अहम हो गई। सपा से निकाले जाने के बाद तो कल्याण एक जाति के भी गौरव नहीं रह गए लगते हैं। आडवाणी ने भी जिन्ना के मुद्दे पर धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़ना चाहा था, अब कहां हैं। अब लोग उनको हेय पुरुष मानने लगे हैं।
भाजपा के साथ लगातार चल रहे घटनाक्रम से लगता है कि भाजपा को अभी किष्कंधा कांड देखना है। भाजपाइयों को सुंदरकांड का पाठ करना होगा। लंका कांड यानी रावण(वक्त के साथ बदलते रहते हैं। आप अनुमान लगाएं और बताएं )का बध भाजपा के लिए अभी बहुत दूर है। सभी को मालूम है कि लंका कांड बगैर राम राज्य की कल्पना साकार नहीं होगी।
मंगलवार, 7 अप्रैल 2009
जब तोप मुकाबिल हो...
चुनाव की चखचख के बीच नामी पत्रकार जरनैल सिंह द्वारा केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम पर जूता फेंकने(जूता उछालना ज्यादा ठीक है) की घटना ने काफी कुछ कह दिया है। इस पर अभी बहस और चर्चाओं का सिलसिला चलेगा। मामला आखिरकार पत्रकारों से जुड़ा है। मैं जल्दी में अपनी प्रतिक्रिया के लिए शब्द ही नहीं तलाश पाया। चिंतन-मंथन के बाद मैंने कुछ इस तरह सोचा हैः
1. जूतों का व्याकरणीकरण और मुहावरीकरण यों ही नहीं हुआ। जब कोई कहता था कि जूतों में दाल बंट रही है तो कुछ भी समझ में नहीं आता था। फिर सुना कि मियां की जूती मियां की चांद भी मुहाबरा है। इसको निजी क्षेत्र में काम करने वाले जब-तब महसूस करते हैं। कई बार आदमी अपने झूठ और गलतियां छिपाने के लिए कह देता है कि आपका जूता मेरा सिर।
2 जूतों का बाजारीकरण तब हुआ था,जब मॉडल मिलिंद सोमण और मधु सप्रे ने एक जूते का विज्ञापन किया था। इसको लेकर पैदा हुए विवाद ने जूते की कदर बढ़ा दी। नहीं तो मेरे स्वर्गीय बाबा उजागर लाल मिश्रा ने एक बार उनके मात्र 60 रुपये के जूते लाने पर मेरे पिताजी को ताना मारा था कि 60 रुपये का जूता हो या छह रुपये का, पहना तो पैर में ही जाना है। शायद वह अपनी यूनाइटेड किंगडम निर्मित 60 रुपये की लाइसेंसी बंदूक की कीमत आंक रहे थे।
3। यों नेता आपस में खूब जूतम-पैजार करते ही रहते हैं। लेकिन उप्र की मुख्यमंत्री मायावती की पार्टी बसपा की ओर से जूतों का राजनीतिकरण कर काफी इज्जत बख्शी गई। उनके कार्यकर्ताओं ने नारा दिया था- तिलक तराजू और तलवार- इनको मारो जूते चार। हालांकि सर्वजन की पार्टी बनने की प्रक्रिया में मायावती ने इससे लगातार इनकार करती हैं। वह नेता कुछ भी कह सकती है। किसी भी बात से मना कर सकती हैं। तमाम नेता ऐसा करते रहे हैं। अब चुनाव हैं, रोज करेंगे।
4। जूतों का महत्व मुझे पत्रकारिता के शुरूआती दिनों में तब समझ में आ गया था, जब मैं लखनऊ विश्विवद्यालय की रिपोर्टिंग करता था। उस समय के एक प्रो-वाइस चांसलर(बाद में वह पूर्वांचल के एक प्रतिषिठत शैक्षिक संस्थान के दो बार कुलपति रहे)और छात्रों के बीच जूते चल गए थे। तब यह अंदर के पन्ने की भी खबर नहीं बनती थी। सो इसे मैंने इसे अपने साप्ताहिक कालम में दुस्साहस कर सर आओ, जूता-जूता खेलें शीर्षक से छाप दिया। फिर क्या था। छात्र आंदोलन पर आमादा हो गए। पीवीसी साहब दबंग छवि के थे। बावजूद इसके उन्होंने अपने एक अति विश्वस्त पूर्व छात्र और मेरे अच्छे मित्र के जरिए मुझसे एतराज जताने को कहा। अंततः पीवीसी साहब से आमने-सामने की मुलाकात हुई और जूता प्रकरण समाप्त हो गया।
5। जूतों का अंतरराष्ट्रीयकरण 14 दिसंबर, 2008 को तब हुआ, जब इराक के पत्रकार मुंतजर जैदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश जूनियर पर गुस्से का इजहार करने के लिए जूता फेंक कर मारा था। भारत के पत्रकार ने इस मामले में दूसरी पायदान हासिल कर ली। हम भारतीय नंबर एक पर रहने में शायद तौहीन समझते हैं।
6। इस संदर्भ में एक शोध किया जाना चाहिए कि जूता फेंकने की घटना में कहीं आर्यो-अनार्यों की उत्पत्ति, उनके ज्ञान और उनकी अनंत यात्रा और इनसे जुड़े मिथकों से तो कोई संबंध नहीं है।
7। जमाना बदल गया है। जरनैल का जूता बनाने वाली कंपनी को चाहिए कि वह जरनैल को अपना ब्रांड एंबेसडर बना लें। इससे युवा और हाल-फिलहाल पत्रकारिता संस्थानों में पढ़ रहे पत्रकारों को जबरदस्त प्रेरणा मिलेगी। वह इसे चीयर गर्ल जैसे कैरियर के तौर पर अपना सकते हैं। इसकी वजह है कि राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में पत्रकारों की कलम की कीमत कम हो गई है। वह कुछ भी लिखते रहें, शासन-प्रशासन के कान पर जूं नहीं रेंगती।
8। मौजूदा हालात को ध्यान में रखते हुए केंद्र और राज्य सरकार के मंत्री और नेताओं को ही नहीं, जिलास्तरीय अधिकारियों को ऐस व्यवस्था करनी होगी कि पत्रकार उससे मिलने से पहले अपने जूते बाहर उतार कर आएं। प्रेस कांफ्रेंस में जूते पहन कर आना वर्जित कर दिया जाए। प्रेस कांफ्रेंस स्थल को धर्मस्थल का दर्जा दिया जाए!
9। लेकिन जरूरी यह भी है कि एसी प्रेस कांफ्रेंस में माननीय मंत्री जी पूरी सत्यनिष्ठा से वक्तव्य दें। देश और समाजा से जुड़े़ सवालों पर गुमराह करने की कोशिश न की जाए। नेता इन आयोजनों का सांप्रदायिक उन्माद फैलाने, भ्रष्टाचारियों का बचाव करने और विरोधियों पर अनर्गल आरोप लगाने के लिए इस्तेमाल न करें।
बुधवार, 25 फ़रवरी 2009
जय हो, कुख्यात हो गए...
लगे हाथ मेरी मिट्टी के तेल के कारोबार से संबंधित चंद लाइनों पर भी गौर फरमा लें- अगर न होता मिट्टी के तेल का कारोबार। कितने लोग मिट्टी में मिल गए होते। मिट्टी के तेल के दाम मिट्टी से भी ज्यादा हैं। अधिकारी इन्हीं दामों का फायदा उठाते हैं। देश भर में डीलर बनाते हैं। बीपीएल कार्ड धारकों की यह मजबूरी है। वहां इससे ही रोटी बनना जरुरी है। इसकी एक और उपयोगिता है। पेट्रोल से इसकी प्रतियोगिता है। गरीब या अमीर महिला जब जान देती है या उसको जलाया जाता है। जलने-जलाने वाले मितव्ययी हो जाते हैं। वे पेट्रोल नहीं,केरोसिन आयल ही आजमाते हैं।
बुधवार, 11 फ़रवरी 2009
कभी-कभी मेरे दिल में...
तो बात ब्लाग शुरू करने के बाद की। मैं जब भी कोई ब्लाग पढ़ता हूं, तो उसके लेखक/ब्लागर के प्रोफाइल के बारे में जानने की इच्छा स्वाभाविक रूप से जागती है। मेरे ब्लाग को पढ़ने वालों ने भी मेरे बारे में जानना चाहा। हिट्स इसे साबित करती हैं। मैं उसमें क्या लिखूं। दूसरों के लिए जो आम है, वह हमारे लिए खास है। खुला खेल फरुक्खाबादी की तर्ज पर मैं अपने बारे में बताना चाहूंगा। ऐसा सच सामान्य है। और भी लोगों का होगा। बहरहाल, पद्य की शक्ल में एक बानगी देखिएः
माता-पिता ने जीवन भर कष्ट सहे
इसीलिए हम उनके साथ कभी नहीं रहे
पढ़ाई बढ़ती गई
जमीन बिकती गई
जमाने से टकराने को कई बार अड़े
गिरे-पड़े, हो गए अपने पैरों पर खड़े
एक दिन नौकरी लग गई
पड़ोसियों में भी आस जग गई
उन्होंने जब पूछा- पता और ठिकाना
मैंने बना दिया कोई न कोई बहाना
एक दिन वे बिना बताए आ गए
कुछ दिन रुके और सारा राशन खा गए
मैं उनके काम में कोई मदद नहीं कर सका
उन पर कोई अहसान नहीं धर सका
वापस लौट उन्होंने सारी पोल खोल दी
पूरे खानदान की हैसियत तौल दी
मां-बाप को बहुत बुरा लगा
मैं सिद्धांतवादी, मुझे बेसुरा लगा
फिर भी कुछ नहीं कर पाया
झट से कोने में मुंह छिपाया
अपनी लाचारी पर रोया बार-बार
क्यों नहीं कर पाया उपकार
यह तो अतीत था। भविष्य की कल्पना पर ध्यान दें। अनुमान लगाएं कि ये काम कौन सा हैः
आज देखता हूं कि काम कराने वाला ही कर्मठ होता है
ऐसे हर आदमी का एक मठ होता है
मठ में दिखावा होता है
उसमें चढ़ावा होता है
जो लेकर आता है, खोता है
खाली हाथ वाला रोता है
देखते-देखते मैं भी हो गया हूं दयावान
जानवर जैसे इनसानों का भगवान
अब हजारों आते हैं
मैं-मेरे लोग काम कराते हैं
छोटी-मोटी कई बीमारियां हो गई हैं
बीवी-बेटा और बच्चियां कहीं खो गई हैं
अपने बजाय किसी और की स्थापना में चापलूसी लगेगी
अच्छी बात यह है कि कइयों में बड़ी उम्मीद जगेगी
अब आपको अपने वर्तमान के बारे में बताते हैंः
व्यथित है हिमालय धरती में है वेदना
चिंताएं हमारी बढ़ गई, नहीं बढ़ी चेतना।
योग हमने छोड़ा, पहली पसंद हुआ क्रिकेट खेलना
फिर भी सीखा नहीं हार को देखना-झेलना।
राजनीति सबसे बुरी, आसानी से कह दिया
पर छोड़ा नहीं हमने नेताओं के आगे लेटना।
स्वार्थ में हमने दूसरों को गले लगा लिया
शर्म गायब, जब शुरू किया अपनों के जख्म कुरेदना।
रावण के सारे तीर हमने चुरा लिए
अपुन का इरादा है राम की मर्यादा को भेदना।
लोगों में छबि इतनी हो गई है अच्छी-खराब
छोटों को नसीहत देते हैं-सच बोलना है मना।
मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009
मन जब अस्थिर होता है...
बहरहाल, लाइनों पर गौर फरमाएं-
अनवरत आते हैं नए विचार
करते हैं आपस में व्यभिचार
जब नहीं हो पाते हैं सहमत
किसी पर भी मढ़ते हैं तोहमत।
इससे मिलती-जुलती लाइनें कुछ इस तरह हैं-
अपने मन का सोचा दूरंदेशी लगता है
हर समस्या के निदान पर संदेशी लगता है
लेकिन अपना कुछ खोने का डर सताता है
यही मन झटके से बचने की राह बताता है
अब बात करते हैं उन शब्दों की जिनको कई लोग अपशब्द नहीं मानते। उनके चाटुकार कहते हैं कि यह तो उनके प्यार का स्टाइल है। संभवतः इसका कारण है-
कुछ सुनने को नहीं हम तैयार
हमे पशुओं से है बेहद प्यार
वजह, दिन-रात, चौबीस घंटे
हम खुद बार-बार वही होते हैं यार
तो बात गधे (कामकाजी और दुनियादरी वाले लोगों के बीच अति कामन शब्द) से शुरू करते हैं-
घर-बाहर जो हर जगह निष्ठा से बंधा होता है
बड़ों से छोटों तक की नजरों में गधा होता है
जब तक उसने कुछ को कहीं का नहीं छोड़ा
जमाना उसे नहीं मानता उसे घोड़ा
क्या करें, हमारे जैसे कई लोग एक से ही सधे हैं
इसलिए हम फिक्र नहीं करते कि हम गधे हैं
सुअर के बारे में मेरा मानना है-
हम मुंह जरूर मारते हैं इधर-उधर
बावजूद इसके नहीं पालते सुअर
क्योंकि सुअर का बच्चा प्यारा होता है
बड़ा सुअर तो पक्का आवारा होता है
अगर इन लाइनों पर लालित्य और साहित्य से वंचित मेरे जैसे व्यक्ति के बारे में आलोचना, प्रशंसा या फिर रस्मी टिप्पणियां आती हैं, तो अगली बार कुछ और पशुओं की बात करेंगे। लेकिन याद रखिए-जानवर घर-जंगल में रहते हैं, उनके क्या कहने
आदमियत खो गई, ताने पड़ रहे उसको सहने