बुधवार, 12 नवंबर 2008
बच्चों का एक ही दिन क्यों
14 नवंबर क्या आया, सभी को बच्चों की याद आने लगी। उनके सुख-दुख पर चिंता जताने के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रम आयोजित किए जाने की तैयारियां चल रही हैं। यह कितनी गंभीर बात है कि जहां नौनिहालों को स्कूल में बुलाने के लिए मिड-डे मील जैसी योजनाएं चलाई जाती हैं, वहां बच्चों के मां-बाप इसमें खास दिलचस्पी नहीं ले रहे। इसका फायदा स्कूलों के मास्टर साहब खुलेआम उठा रहे हैं। प्रशासन के अधिकारी भी इसमें पीछे नहीं हैं। भ्रष्टाचार की बहती गंगा में उनके लिए हाथ धोना कोई नई बात नहीं है। करीब दो साल पहले 14 साल के कम उम्र के बच्चों को घरेलू काम करने पर पाबंदी का नियम बनाया गया था, पर उसका क्या हुआ। उस आदेश पर मानीटिरंग कमेटियां बनीं। लिखा-पढ़ी के साथ-साथ खूब तमाशा हुआ। पर सोचने की बात यह है कि इस पर ध्यान किसने दिया। समाज के सबसे बड़े ठेकेदार यानी नेता भी इस मुहिम में सामने नहीं आए। उल्टे आज चार राज्यों में हो रहे चुनाव में पोस्टर-बैनर लगाने के काम में सबसे ज्यादा यही बच्चे लगे हुए हैं। बिडंवना तो यह है कि बाल दिवस को 14 नवंबर को मनाया जाता है। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का यह जन्मदिन भी है। बच्चे फैक्ट्रियों में काम कर रहे हैं। वजह, उन्हें अपने परिवार का पेट पालना है। बच्चों का यह हाल उस प्रधानमंत्री के देश में है, जो बच्चों को बेइंतहा प्यार करता था। बच्चे जिन्हें प्यार से चाचा कहते थे। कभी-कभी तो लगता है कि अगर बाल दिवस पहले प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर न मनाया जाता, तो अब तक इसे मनाना ही बंद कर दिया गया होता। ताज्जुब की बात है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बालकों की खरीद-फरोख्त, उनके साथ अप्राकृतिक यौनाचार, उनके मादक पदार्थों के धंधे में इस्तेमाल किया जाता है और औसत हिंदुस्तानी सिनेमा हाल में आमिर खान की फिल्म तारे जमीं पर देखकर रोते हुए निकलता है। भूतनाथ में एक बच्चा ही है, जो अतृप्त आत्मा को इस दुनियादारी से मुक्ति दिलाता है। बच्चे हमारे लिए क्या कर रहे हैं और हम। कल जब बच्चे बड़े होकर इसका जवाब मांगेगे, तो हमें अपना मुंह छिपाना पड़ेगा। बड़े इसे अपने कुतर्कों से जनरेशन गैप भी करार दे सकते हैं। क्या जरूरी नहीं कि हम इस बार के बाल दिवस से अपने और अपने पड़ोस के एक बच्चे के बारे में कुछ करें। पता नहीं, इनमें से बागवान का आलोक बनकर हमारे काम आ जाए। यह भी ध्यान रखिए कि बच्चे मन के सच्चे होते हैं। इन्हें अपना अभावों में गुजरा बचपन ही नहीं, उस दौर के छोटी मदद करने वाले, आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने वाले हमेशा याद रहते हैं।
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1 टिप्पणी:
darasal jab se neharu ji ka daehik avasan hua, hindustan ke bachchon ke sare chacha ya to khatm ho gaye, ya fir ve desh ki bhavi peedhiyon ke liye BAAL-SHOSHAK ki bhoomika me aa gaye.
ab aj ke chacha ki nigahen bachcho ko apne BHATEEJON ke bajaye ya to bal shramik ke taur par dekhati hae ya fir nireeh aur nishulk YAON-KARYAKARTA.
chay ke hotel-khomacho se lekar bade makano aur bangalows me yahi sab to hota hae. aur keval vahin kyu, samaj-shastr ke sidhhant kya sanykt parivaron me yahi sab pramanit nahi karte hae? ab to patrakarita ki duniya me chacha se bhi aage badh kar BHAIYA ki bhumika me aye logo ki kartooten kya kisi se chhipi hae?
yani ....
laut aao chacha neharu, ya fir kisi ko to apani bhoomika nibhane bhejo.....
kumarsauvir@yahoo.com
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