मुंबई पर आतंकी हमले के बाद हमने नेताओं का एक नया चेहरा देख लिया है। चाहे वह महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री आरआर पाटिल हों या फिर राष्ट्रवादी सोच वाली भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी या फिर किसी भी तरह की आस्था को न मानने वाले केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतनंदन हों। सबने यह बता दिया कि उन्हें केवल और केवल राजनीति से मतलब है। जनता की भावनाओं से, देश के मर िमटने वाले रणबाकुरों के बारे में उनकी सोच अपने दल के अदने से कार्यकर्ता से भी कम है। उत्तर प्रदेश के सहकारिता मंत्री रहे पूर्व सांसद राम प्रकाश त्रिपाठी करीब 20 साल पहले मैंने निजी तौर पर एक सवाल पूछा था कि नेता माने क्या होता है। सैद्धांतिक तौर पर उन्होंने नेता का मतलब एक बडे़ वर्ग की समस्याओं के लिए किसी भी परिस्थिति में नेतृत्व करने का साहस रखने वाला व्यक्ति बताया था। व्यवहारिक तौर उन्होंने सीधे कहा था कि नेता का अर्थ इस शब्द का उलटा होता है। यानी जो अपनी बात को जितना ज्यादा ताने, वह उतना ही बड़ा नेता होता है।
सच है। देश इन तानने वाले नेताओं के मकड़जाल में बरसों-बरस से उलझा हुआ है। उसने नारों की आ़ड़ लेकर जनता को हमेशा मूर्ख बनाया है। नेता जानना ही नहीं चाहता है कि आम जनता की भावनाएं भी होती हैं। अपने आलाकमान को खुश करने के लिए, वोट बटोरने के लिए नेता के मन में जो भी आता है, कह देता है। रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव और समाजवादी पार्टी के महसचिव अमर सिंह भी इसी बिरादरी में आते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने भी एक बार कहा था कि उनका वोटर अखबार नहीं पढ़ता है। बाद में उन्हें पता चल गया था कि पाठक अखबार ही नहीं पढ़ता है, सच्चाई भी समझता है। क्या यह इससे जाहिर नहीं होता कि 1989 के बाद उन्होंने जोड़-तोड़ ही सरकारें बनाई। अब तो टीवी ने लोगों को लाइव घटनाएं दिखाकर छिपाने के लिए कुछ बाकी ही नहीं रखा है। दरअसल, मुंबई की घटनाओं के बाद नेताओं के पास मुंह दिखाने का कोई रास्ता नहीं बचा है। बावजूद इसके टीवी पर अपना खुद का चेहरा दिखाने की ललक और अखबारों में अपने बयान को बड़ा देखने की तड़प उन्हें बिना सोचे-समझे बयान देने के लिए मजबूर कर रही है।
ऐसे में लोकतांत्रिक व्यवस्था को बरकरार रखने और इसकी मजबूती के लिए कुछ कदम उठाया जाना जरूरी है। एक- मतदान के दौरान प्रत्याशियों के चुनाव चिह्न के साथ एक कालम यह भी हो कि इनमें से कोई नहीं। इस तरह हम मतदाता को अपनी नापसंद भी व्यक्त करने की आजादी दे सकते हैं। इससे नकारात्मक मतदान बढ़ सकता है। दूसरा- अगर कोई उम्मीदवार 40 फीसदी से कम वोट पाकर जीत जाता है, तो उसका कार्यकाल पांच वर्ष के बजाय दो साल करने का प्रावधान किया जाए। उसको दी जाने वाली सुविधाओं में भी इसी हिसाब से कटौती की जाए। दो साल बाद फिऱ चुनाव कराया जाए। तब तक कम अंतर से जीतने वाले प्रत्य़ाशी के पास अपना अंतर सुधारने का मौका रहेगा। तीन- जनता को जीते हुए उम्मीदवार को वापस बुलाने का अधिकार दिए जाने पर जल्दी ही फैसला आना चाहिए। इसके लिए कई संगठन प्रयासरत भी हैं। कहीं ऐसा न हो जाए कि हाल-फिलहाल जनता जिन नेताओं का विरोध धरना-प्रदशर्न और रैली निकालकर करती है, हिंसक हो जाए। नेताओं को बीच बाजार सरेआम अपमानित किया गया, तो हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर गहरा दाग लग जाएगा।
बुधवार, 3 दिसंबर 2008
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2 टिप्पणियां:
after harishanker parsai in hindi satire this trend is shown after a long gap. it is too early and immature to compare it with the eassy ( or satires)of hari shanker parsai but we should keep it going to achieve the best. litrelly we are lacking satire or cartoons in news parers insteas we have are boaring, lengthy and articles bombarding unnessary informations written by some journalist(???), of the journalist and for the same kind of breed . best of luck and keep going.
it is a great thouht to tell the people more about what the politician has done on the terrorism.
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