रविवार, 14 दिसंबर 2008

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देखा आपने। आतंकवाद पर संसद में एकजुटता की हवा अगले ही दिन निकल गई। लोकसभा चुनाव में आतंकवाद को मुद्दा बनाने की सोचने वाले हमारे तमाम मंत्री और नेता 13 दिसंबर, 2001 को संसद पर हमले के दौरान शहादत देने वाले सुरक्षाकर्मियों को याद करने और उनके परिजनों को सांत्वना देने के लिए समय नहीं निकल पाए। धीरे-धीरे आम लोगों का गुस्सा भी कम होता जा रहा है। आतंकवाद और पाकिस्तान के खिलाफ की जा रही बातें भी हल्की पड़ गई हैं। यह अलग बात है कि खुद और अपने रिश्तेदारों को लेकर सामान्य से आदमी की भी चिंता ज्यादा बढ़ गई है। यह आम आदमी महंगाई से लड़ने के लिए तो अपने खर्च में कटौती कर सकता है, पर आतंकवादियों और आत्मघाती दस्तों का मुकाबला कैसे कर सकता हैं।

उसे अपनी और समस्याओं से ही जूझने का वक्त नहीं है। वह उनसे ही हिम्मत हार चुका है। उसे उदारीकरण और वैश्वीकरण की हवा ले डूबी है। उसने कुछ दिन इस अनायास नहीं दिए। उन्हें लगा कि अगर वे राष्ट्रीय शोक की इस घड़ी में शामिल न हुए तो वे एक नागरिक की जिम्मेदारी निभाने से चूक जाएंगे। फिर टीवी ने भी तो इतना मुंबई दिखाया कि उसे और कुछ नहीं सूझ रहा था।

अब उसे फिर वहीं रोजमर्रा की दिक्कतें नजर आने लगी हैं। सो इस तबके में से ज्यादातर का मूड चुनावी हो रहा है। अब उसे लोकसभा चुनाव नजर आएगा। अपनी निष्ठा वाली पार्टी लुभाएगी। उसके लिए वह तर्क-वितर्क और कुतर्क करेगा। झगड़े-फसाद करेगा। महंगाई के बारे में तरह-तरह के दावे किए जाएंगे। थोड़े समझदार लोगों के लिए आंकड़ों से खेलना और उनसे छेड़छाड़ बहुत आसान होती है। जो चिंतन करेगा उसके लिए मंदी कम और इसके चलते फैलाया जा रहा खौफ काबिले जिक्र होगा। यह सच है कि मंदी के इस दौर में हजारों करोड़ टर्नओवर वाली कंपनियों के अधिकारी और कर्मचारी ज्यादा परेशान हैं। उन्हें अपनी सुख-सुविधाएं छिनने की चिता सता रही है। जमीन से अलग हट जाने और जमीन बेच देने वालों का ह्श्र यही होता है। तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बड़े पद और पैकेज पर काम करने वाले लोग औसत बुदि्धमान लोग ही हैं, लेकिन रुतबा बढ़ने पर उन्होंने जमीन पर चलना तो दूर जमीन पर चलना तक छोड़ दिया था। अब उन्हें जमीन दिखेगी कि नहीं। देखेंगे।

अगर मंदी की मार कुछ दिन और चली, तो यकीन मानिए कि खुदकुशी करने वाले अधेड़ और बुजुर्गों की संख्या बढ़ जाएगी। बेरोजगार नौजवानों में नशे की लत और बढ़ जाएगी। इनमें कोई भी आतंकी हो सकता है। आतंकवाद को रोकने के साथ-साथ संरकार को इन लोगो को आतंकी बनने से रोकना भी चुनौती होगी। वैसे, भारत में चुनौती स्वीकार करने और देने को लेकर खास गंभीरता नहीं दिखाई जाती। संभव है कि चुनौतियों के चक्रव्यूह में हम सब कहीं एक बार फिर न घिर जाएं। इसमें फायदा होगा, जिनका-सबते नीके मूड़, जिन्हैं न व्यापै जगत गति- में यकीन है। हमें इंतजार है उनका, जो कहते हैं-ऐ वतन की रेत मुझे ऐड़ियां तो रगड़ने दे मुझे यकीं है पानी यहीं से निकलेगा।

5 टिप्‍पणियां:

Dr. Ashok Kumar Mishra ने कहा…

अगर मंदी की मार कुछ दिन और चली, तो यकीन मानिए कि खुदकुशी करने वाले अधेड़ और बुजुर्गों की संख्या बढ़ जाएगी। -aapki yeh chinta sahi hai.

अच्छा िलखा है आपने । जीवन के सच को प्रभावशाली तरीके से शब्दबद्ध िकया है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है -आत्मिवश्वास के सहारे जीतें िजंदगी की जंग-समय हो तो पढें और कमेंट भी दें-

http://www.ashokvichar.blogspot.com

बेनामी ने कहा…

pradeep ji
its gives me immense pleaser to place it on record that this article/bloticle is really thought provoking and sensitive in nature. Only this kind of article/bloticle is able to mould the opinion of masses and change the social political scenario. Well-done and keep going.
mujhe bhi hindi main blog per likhna sikhaiye.
wishes

बेनामी ने कहा…

mishra ji
jaldi jaldi likha karo

बेनामी ने कहा…

Such! Mandi Se Sirf Ajivika Hi Khatre Me Nahin Hai. Iske Sath Vichar, Sabhayata & Manvata Bhi Khatem Ho rahe Hain

Bhupendra Sahai

Bahadur Patel ने कहा…

achchha hai.