अपने अध्ययनकाल में मैंने डॉ. श्याम सिंह शशि की एक कविता पढ़ी थी। पूरी कविता तो याद नहीं, लेकिन चार लाइनें- परिचित हुआ, किसी का ना रहा। काश, अपरिचित ही रहता मैं। मन में आज भी मौजूद हैं। बाद में कई बार सोचा कि एक किताब लिखूंगा, जिसमें कविताएं भी होंगी। आज तक तो लिखने का ही मुहूर्त नहीं निकल पाया है। आगे देखते हैं, क्या होता है। ज्योतिषियों की माने तो मुझे कई किताबें लिखनी हैं।
तो बात ब्लाग शुरू करने के बाद की। मैं जब भी कोई ब्लाग पढ़ता हूं, तो उसके लेखक/ब्लागर के प्रोफाइल के बारे में जानने की इच्छा स्वाभाविक रूप से जागती है। मेरे ब्लाग को पढ़ने वालों ने भी मेरे बारे में जानना चाहा। हिट्स इसे साबित करती हैं। मैं उसमें क्या लिखूं। दूसरों के लिए जो आम है, वह हमारे लिए खास है। खुला खेल फरुक्खाबादी की तर्ज पर मैं अपने बारे में बताना चाहूंगा। ऐसा सच सामान्य है। और भी लोगों का होगा। बहरहाल, पद्य की शक्ल में एक बानगी देखिएः
माता-पिता ने जीवन भर कष्ट सहे
इसीलिए हम उनके साथ कभी नहीं रहे
पढ़ाई बढ़ती गई
जमीन बिकती गई
जमाने से टकराने को कई बार अड़े
गिरे-पड़े, हो गए अपने पैरों पर खड़े
एक दिन नौकरी लग गई
पड़ोसियों में भी आस जग गई
उन्होंने जब पूछा- पता और ठिकाना
मैंने बना दिया कोई न कोई बहाना
एक दिन वे बिना बताए आ गए
कुछ दिन रुके और सारा राशन खा गए
मैं उनके काम में कोई मदद नहीं कर सका
उन पर कोई अहसान नहीं धर सका
वापस लौट उन्होंने सारी पोल खोल दी
पूरे खानदान की हैसियत तौल दी
मां-बाप को बहुत बुरा लगा
मैं सिद्धांतवादी, मुझे बेसुरा लगा
फिर भी कुछ नहीं कर पाया
झट से कोने में मुंह छिपाया
अपनी लाचारी पर रोया बार-बार
क्यों नहीं कर पाया उपकार
यह तो अतीत था। भविष्य की कल्पना पर ध्यान दें। अनुमान लगाएं कि ये काम कौन सा हैः
आज देखता हूं कि काम कराने वाला ही कर्मठ होता है
ऐसे हर आदमी का एक मठ होता है
मठ में दिखावा होता है
उसमें चढ़ावा होता है
जो लेकर आता है, खोता है
खाली हाथ वाला रोता है
देखते-देखते मैं भी हो गया हूं दयावान
जानवर जैसे इनसानों का भगवान
अब हजारों आते हैं
मैं-मेरे लोग काम कराते हैं
छोटी-मोटी कई बीमारियां हो गई हैं
बीवी-बेटा और बच्चियां कहीं खो गई हैं
अपने बजाय किसी और की स्थापना में चापलूसी लगेगी
अच्छी बात यह है कि कइयों में बड़ी उम्मीद जगेगी
अब आपको अपने वर्तमान के बारे में बताते हैंः
व्यथित है हिमालय धरती में है वेदना
चिंताएं हमारी बढ़ गई, नहीं बढ़ी चेतना।
योग हमने छोड़ा, पहली पसंद हुआ क्रिकेट खेलना
फिर भी सीखा नहीं हार को देखना-झेलना।
राजनीति सबसे बुरी, आसानी से कह दिया
पर छोड़ा नहीं हमने नेताओं के आगे लेटना।
स्वार्थ में हमने दूसरों को गले लगा लिया
शर्म गायब, जब शुरू किया अपनों के जख्म कुरेदना।
रावण के सारे तीर हमने चुरा लिए
अपुन का इरादा है राम की मर्यादा को भेदना।
लोगों में छबि इतनी हो गई है अच्छी-खराब
छोटों को नसीहत देते हैं-सच बोलना है मना।
बुधवार, 11 फ़रवरी 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
3 टिप्पणियां:
dear pradeep ji,
i am amazed to see your talent in poetry. its more pinchinging and thought provoking than your writeups. these reminds me of "Muktibodh" in hindi and P.B. Shaely in english. Both have the same inheritence of passimissum with optimisium. go ahead for such poetry.
afsoos hindi main nahi likh sakta.
wishes
hezading of article is appealing, morvelous, trenendes and so on.........
रोचक परिचय.
एक टिप्पणी भेजें