सोमवार, 30 जुलाई 2012

हम न समझे थे बात इतनी सी...

हम न समझे थे बात इतनी सी... फेसबुक का चेहरा बहुत दिन देख लिया। पुराने दोस्त भी बहुत मिल गए। अब फिर ब्लाग पर वापसी की तैयारी है। दरअसल, फेसबुक पर गंभीर बहस की गुंजाइश कम लगती है। ज्यादातर मामलों में तो लगता है कि सब अपने-अपने फोटो के साथअपना प्रचार कर रहे हैं। सभी अपनी-अपनी फ्रेंड लिस्ट बढ़ाने में जुटे हैं। मानो, जिसके जितने दोस्त,वह उतनी ही बड़ा सरोकारी और जानकार। दूसरी तरफ वास्तविकता यह है कि सामाजिक सरोकार, राजनीतिक परिवर्तन और अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर सतही चर्चा से काम नहीं चलता। ये सतत चिंतन-मंथन का प्रक्रिया है। माना कि फेसबुक आसानी से ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचने का साधन है, लेकिन ये तेजी जितनी जल्दी जिज्ञासा जगाती है, उतनी ही जल्दी से उसे खत्म भी कर देती है। ब्लाग उन लोगों के लिए है, जो कुछ विचार रखते हैं। उनके पास एक सोच है और वे किसी मुद्दे पर बहस चाहते हैं। इस बहस को कोई दिशा देना चाहते हैं।

सोमवार, 27 सितंबर 2010

मंगल भवन अमंगल हारी...

28 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या से जुड़े मामले की सुनवाई हो रही है। सुप्रीम कोर्ट बताएगा कि इस मामले में सुलह की गुंजाइश क्या-क्या हो सकती है। लेकिन देखना यह है कि इसमें कितने पक्षकार उपिस्थत होते हैं। यदि सभी पक्षकार मंगलवार को मौजूद होते हैं, तो माना जा सकता है कि अभी इस मामले में बातचीत का रास्ता ही अंतिम हो सकता है, अन्यथा की स्थिति में पक्के तौर पर कोई कुछ नहीं सकता है।
किताबों में पढ़ा है। अयोध्या माने अवध। यहां कोई वध नहीं हुआ। फिर इसके लिए कई वर्ष से चली आ रही जद्दोजहद, पेशबंदी, बेचैनी, भय, असुरक्षा, हिंसा, खून-खराबा, अदालती हस्तक्षेप, बातचीत, अलग-अलग वादे-इरादे क्यों हो रहे हैं। अब तो भारत दुनिया की महाशक्ति बनने की ओर बढ़ रहा है, तो भी हम हिंदू-मुसलमान, अगड़े-पिछड़े के पाट में पिस रहे हैं।
बहुत लोगों को याद होगा। 1989 का आरक्षण विरोधी आंदोलन और 1992 का मंदिर आंदोलन। दोनों से देश को क्या मिला। पिछड़ों को आरक्षण से अगड़ों की प्रतिभा प्रभावित हो गई या फिर अयोध्या में भव्य मंदिर बन गया। मंडल के मसीहा वीपी सिंह को आज कितने लोग याद करते हैं। रथयात्रा निकालने वाले लाल कृष्ण आडवाणी आज अपनी ही पार्टी में कहां हैं। परिंदों के भी पर रोकने का दावा करने वाले मुलायम सिंह यादव और आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद खुद-ब-खुद शौर्य चक्र हथियाने वाले लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक हालत किसी से छिपी नहीं है। उस समय की साध्वी ऋतंभरा आज दीदी मां बनकर आश्रम चला रही हैं, तो उमा भारती भाजपा में वापसी के लिए छटपटा रही हैं। विहिप के अशोक सिंघल और भाजपा के विनय कटियार को वृंदावन के सुरेश बघेल की कोई फिक्र है। बघेल को 1990 में अयोध्या के विवादित स्थल पर डायनमाइट की छड़ लगाते पकड़ा गया था। अब यही बघेल एक भाजपा सांसद की चाकरी कर रहा है। उस गरीब की बच्ची ऋतंभरा की ओर से संचालित संविद स्कूल में प्रवेश के लिए बेचैन है।
इसी तरह एक समय समूचे मुसलिम समाज की नुमाइंदगी करने वाले शहाबुद्दीन को उनकी कौम कितना जानती है। जफरयाब जिलानी पक्षकार के नाते जाने जाते हैं।
23 सितंबर को हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मेरे एक पढ़े-लिखे परिचित ने दावे के साथ कहा था। ठीक रहा। शुक्रवार को ज्यादातर फैसले मुसलमानों के पक्ष में होते हैं। शुक्रवार को भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच का नतीजा भी पाकिस्तान के पक्ष में होता है। चूंकि आंकड़े नहीं मालूम थे, इसलिए बहस का मतलब नहीं था। इस बहाने एक मानसिकता का खुलासा हुआ। अब देश की सबसे बड़ी अदालत में मंगलवार को सुनवाई हो रही है। सो इस बारे में उनसे कल की सुनवाई के बाद बात की जाएगी। देखेंगे वह क्या तर्क देते हैं।
देश और उत्तर प्रदेश के लोग चाहते हैं कि अब इस मामले का फैसला हो जाए। यह ठीक है। सवाल यह है कि क्या पक्षकार भी यही चाहते हैं। क्या इन्हीं मुद्दों पर राजनीति की रोटी सेंकने वाले भी यही चाहते हैं। चुप्पी से कुछ नहीं होगा। बोलना नहीं कुछ करना पड़ेगा। दोनों पक्ष थोड़ा-थोड़ा भी नरम पड़े, तो हो सकता है कि हम एक नया इतिहास लिख दें। भारत में कई बार इतिहास अनायास बन जाता है। एक बार कोशिश करने में क्या जाता है। शायद 1992 का कलंक खत्म हो जाए। इसीलिए ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चयनित शायर शहरयार के शब्दों में कह रहा हूं-बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए...।

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

ठाकुर तो गयो...

राजनीति में कुछ भी हो सकता है। कोई सोच भी नहीं सकता था कि ठाकुर अमर सिंह और समाजवादी पार्टी के आल-इन आल मुलायम सिंह में कभी खटास आएगी। लेकिन अमर सिंह के जन्मदिन पर टकराव शुरू हो गया है। फिल्मी गांनों और शेर-ओ-शायरी को अपने तर्कों-कुतर्कों और वितर्कों में शामिल करने वाले अमर सिंह मन ही मन कह रहे होंगे कि दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है।
वजह यह नहीं है कि मुलायम से उनकी दोस्ती टूट गई है। वजह यह है कि अभी तक उनके आदरणीय नेताजी ने उनसे राज्यसभा सदस्यता के बारे में कुछ नहीं कहा। उलटे उनके सिपहसालार मोहन सिंह ने प्रवक्ता बनते ही अमर सिंह को राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने की नसीहत दे डाली। अमर सिंह को बताया जा रहा है कि पार्टी छोड़ने के बाद राज्यसभा में बने रहना अनैतिक है। वक्त-वक्त की बात है। कभी सपा में सिर्फ अमर सिंह ही बोलते थे। वह जो भी बोलते थे उसे पार्टी के लोग मानते थे और दूसरे दलों के नेता उस पर प्रतिक्रया देते थे। कुछ ही दिन में हालत यह हो गई कि अमर सिंह को दी गई सलाह, उन पर लगाए गए आरोपों के बारे में उन्हें खुद सफाई देनी पड़ रही है। अपने किस्सों, अपने रिश्तों, अपने पुराने और नए समर्थकों के बारे में जानकारियां और राय अपने ब्लाग पर दे रहे हैं। ब्लाग अंतरराष्ट्ीय मंच है, सो उस पर टिप्पणियां भी खूब आती हैं। यह अलग बात है कि इन टिप्पणियों में वह तबका शामिल नहीं है, ठाकुर अमर सिंह जिसे एकजुट करने की वकालत कर रहे हैं। ठाकुर साहब अभी भी कह रहे हैं कि वह नेता जी यानी मुलायम सिंह यादव के राज नहीं खोलेंगे। इसे क्या माना जाए कि कभी धरतीपुत्र कहे जाने वाले मुलायम सिंह षडयंत्रकारी भी रहे हैं। अमर सिंह कह रहे हैं कि मुलायम परिवारवादी हैं, लेकिन वह इसमें उनके सांसद पुत्र अखिलेश यादव को शामिल नहीं कर रहे हैं। वह उनकी तारीफ-दर-तारीफ कर रहे हैं। अमर सिंह अखिलेश की तारीफ करते समय शायद यह याद नहीं करते कि मुलायम सिंह यादव की उन्होंने कैसे और क्यों फिल्म स्टारों और उद्योगपतियों में घुसपैठ कराई थी। जमीन से उठाकर उन्हें हवाई नेता बनाने के लिए उन्होंने क्या किया था। भारत माता को डायन कहने वाले आजम खान को उन्होंने नेता जी से क्यों दूर कर दिया। कल्याण सिंह के बारे में अमर सिंह सफाई दे चुके हैं। जनेश्वर मिश्र को श्रद्धांजलि देते हुए उनको नमन कर चुके हैं। रामगोपाल के बारे में वह चुप्पी साध जाते हैं। बावजूद इसके सपा के दायरे को बढ़ाने के लिए रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को पार्टी का समर्थन देने और इस पर होने वाली किरकरी को झेलने के अलावा और भी हैं तमाम सवाल हैं और इनका जवाब ठाकुर साहब ही दे सकते हैं।
मूलत अध्यापक मुलायम सिंह के प्रति आस्था रखने वालों को यह समझ में नहीं आता कि उन्होंने रहीम को नहीं पढ़ा होगा। रहीम ने ही कहा था रहिमन देख बडे़न को लघु न दीजिए डार, जहां काम आबै सुई कहा करै तलवार। तलवार से तिलक कराने चले थे मुलायम सिंह। उन्हें यह तो सोचना चाहिए था कि अब सामंतशाही नहीं है। वोटर प्रजा नहीं रह गया है। फिल्मी कलाकारों के लटके-झटके वह अपने घर के टीवी पर भी देख लेता है। सामने कोई मुन्ना भाई आ जाता है तो वह उसे देख लेता है। वोट वह उसे देता है, जो उसके पारिवारिक आयोजनों में शामिल होता है। उन्हें दुख के मौके पर सांत्वना देता है। उससे उसका कोई मतलब नहीं होता, जो सरकार बनने पर झंडे बदलकर डग्गेमारी और ठेकेदारी करते हैं। उनसे वह दिल से नफरत करता है, जो जातीय आधार पर उत्पीड़न करते हैं। मुलायम क्यों नहीं मान लेते कि उनकी पार्टी प्रांतीय है। स्वर्गीय रामशरण दास निजी बातचीत में कहते थे कि वह राष्ट्ीय पार्टी के प्रांतीय अध्यक हैं और मुलायम सिंह प्रांतीय पार्टी के राष्ट्ीय अध्यक हैं।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

बहन जी कहां जाएंगी...

बीते करीब एक सप्ताह से मेरी चिंता कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। चिंता भी अकेले की होती तो कोई बात नहीं। सच, किसी से भी नहीं कहता। लेकिन काफी चिंतन-मंथन के बाद भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा हूं। पोस्ट लिखने का मकसद भी यही है। कारण, किताबों में पढ़ा है कि जब समझ में आना बंद हो जाए, तो कुछ भले लोगों के साथ चरचा कर लेनी चाहिए।
अब आते हैं चिंता के पहलुओं पर। हुआ यह कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमत्री आदरणीय बहन जी कुमारी मायावती जी ने प्रधानमंत्री ड. मनमोहन सिंह को दो चिट्ठियां लिखी हैं। दोनों पत्र उन्होंने पूर्व केंद्रीय श्रम मंत्री के चंद्रशेखरराव को केंद्र सरकार द्वारा आंध्र प्रदेश से अलग कर तेलंगाना राज्य बनाने के आश्वासन के बाद लिखे हैं। पहले पत्र में उन्होंने बुंदेलखंड और हरित प्रदेश बनाने के लिए पत्र लिखा, जबकि दूसरे पत्र में उन्होंने पूर्वांचल की मांग की। मेरे सामने संकट यह है कि मैं तीनों नए राज्यों वाले प्रस्तावित जिलों में नहीं आता हूं। मेरा गृह जनपद फर्रुखाबाद है। यहां के बारे में एक कहावत है- खुल्ला खेल फरक्खावादी-। इस वजह से ही मैं यह लिख भी रहा हूं।
बहन जी से मैं जानना यह चाहता हूं कि मेरा जिला अब किस प्रदेश में रहेगा। तीन नए राज्यों में तो है नहीं। क्या इसका मतलब यह है कि उत्तर प्रदेश के चार टुकड़े होंगे। बहन जी, लगे हाथ कृपया यह भी बता दें कि क्या आपकी उत्तर प्रदेश का नाम भी तो बदलने की योजना नहीं है। इस प्रदेश की जनता ने आपको चार बार सीएम बनाया है, तो आपको इसे चार टुकड़ों में बांटने का हक है। शायद आप भूल गईं कि बुंदेलखंड की तरह से यूपी में बरेली मंडल वाले इलाके को रुहेलखंड भी कहा जाता है। यहां कोई माई का लाल पैदा नहीं हुआ कि वह अलग राज्य की मांग उठाता। आपको इसीलिए याद भी नहीं रहा होगा। चलो छोड़िए। आप विधानसभा में इसके लिए भी प्रस्ताव पारित करवा देना। वहां तो आपका बहुमत है। जब तक आप यह प्रस्ताव लाएं, तब तक शायद विधान परिषद में भी आपकी सीटें बढ़ जाएंगी। सारी विघ्न-बाधाएं खत्म हो जाएंगी। हां, आप दूरंदेशी हैं, सो इन राज्यों की नई राजधानियों का जिक्र करना मत भूलिएगा। लखनऊ- जिसके बारे में कहा जाता था कि लखनऊ हम पर फिदा, हम फिदा ए-लखनऊ। अब कहीं का रहेगा या नहीं। यहां की भूलभुलैया, इमामवाड़े की कौन सुध लेगा। विधानसभा भवन में तो आप कुछ वे मूर्तियां लगवा देना, जो अंबेडकर पार्क में लगने से रह गई हों। इन प्रतिमाओं को लखनऊ आने वाला, रहने वाला हर आदमी जरूर देखेगा, क्यों ये शहर के बीचोंबीच है। गोमती नगर जाने वाले सभी रास्ते इधर से ही जाते हैं। लेकिन आपको सलाह देने के चक्कर में एक बात तो भूल ही गया कि बुंदेलखंड के लिए आपने मप्र के भइया सीएम शिवराज सिंह चौहान से बात कर ली है या नहीं। मैं समझता हूं पूर्वांचल में आपने कुछ बिहार के भी जिले शामिल किए हैं, तो बिहारी बाबू नीतीश कुमार से आपकी बात हो ही गई होगी।
चलिए अब आखिरी, लेकिन महत्वपूर्ण बात करते हैं। अभी आपकी करीब ढाई साल की सरकार (मंशा ठीक समझते हुए इसे कार्यकाल समझा जाए)बची है। आपके पास बहुमत है। मान लीजिए, केंद्र सरकार ने आपसे पंगा नहीं लिया (लेगी भी नहीं। आप उसे समर्थन जो दे रही हैं। हालांकि मुलायम सिंह के साथ केंद्र का प्यार उतना नहीं है ), तो नए राज्य बन जाएंगे। दो में थोड़ी दिक्कत हो सकती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश (आपने हरित प्रदेश का प्रस्ताव कैसे कर दिया, समझ से परे है। यह तो रालोद के सब कुछ और आपको पानी पी-पीकर कोसने वाले चौधरी अजित सिंह का मुद्दा रहा है। ब्रज प्रदेश की मांग बहुत पुरानी है। आप इसे उठाकर (चुरा नहीं कहा मैंने)फिर गरमा सकती थीं। इससे सर्वजन की सरकार का आधार और मजबूत हो सकता था। इससे मथुरा और अलीगढ़ इलाकों में लोग राधे-राधे की जगह आपके जयकारे लगा सकते थे। अभी वक्त है। इस पर जरूर सोचिएगा।
एक बात और। यह 80 लोकसभा सीटों और 403 विधानसभा सीटों वाले उप्र (आपकी मानी गई तो फिलहाल)के विभाजन के बाद आप कहां विराजमान होंगी। विस में मौजूदा संख्या बल के हिसाब से तो चारों राज्यो में आपकी सरकार होगी। अगर आप लखनऊ में ही रहकर जनसेवा करना चाहती हैं,तो आपके कौन से विश्वस्त दूसरे राज्यों में नीला झंडा फहराएंगे। यह गोपनीय बात है, लेकिन पब्लिक जानना चाहती है। क्या बांदा वाले मंत्री जी बुंदेलखंड जाएंगे। अभी-अभी जीत कर फिर लाल बत्ती पाने वाले क्या पूर्वांचल संभालेंगे। पश्चिमी उप्र तो आपका दावा मजबूत है। गौतमबुद्ध नगर तो आपका घर है। प्लीज आप जल्दी ये बताइगा। नाराज मत होइए। हम यह बात इसलिए कह रहे हैं कि भरोसा नहीं लोग कब कहने लगें- दिल के टुकड़े-टुकड़े करके मुसकराते चल दिए...। आगे नहीं लिखूंगा। माफी मांगनी पड़ सकती है।

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

अब अरण्य कांड की बात करो...

श्री राम जन्म भूमि-बाबरी मसजिद यानी विवादास्पद ढांचा यानी छह दिसंबर,1992 के अयोध्या कांड पर भाजपा सांसद अरुण शौरी का एक बयान बहुत कुछ कहता है। उनका कहना कि 1990-92 में अयोध्या मसले को लेकर जैसा माहौल (गरमाया नहीं कहा) बना था, वैसा फिर संभव नहीं है। शौरी भाजपा को कटी पतंग भी कह चुके हैं, लेकिन बतौर पत्रकार इन्होंने ही तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहाराव के हवाले से अरे भाई वहां (अयोध्या में) मसजिद है ही कहां शीर्षक से एक एक्सक्लूसिव खबर छापी थी।
शौरी के मौजूदा बयान का क्या मतलब निकाला जाए। पार्टी के कार्यकर्ता समझ नहीं पा रहे हैं। खासतौर वे लोग, जो छह दिसंबर को राष्ट्रीय गौरव का दिन मानते रहे हैं। भाजपा में अयोध्या को लेकर लाल कृष्ण आडवाणी से लेकर विहिप के अशोक सिंघल और शिवसेना के बाल ठाकरे तक के जो बयान आ रहे हैं, उनसे लगता है कि इनमें से किसी ने संत तुलसीदास की श्री राम चरित मानस नहीं पढ़ी है। इन्हें नहीं मालूम कि अयोध्या कांड के बाद अरण्य कांड आता है। इसका मतलब है कि भटको, विचरण करो। अर्थात सत्य की तलाश करो। वैसे भाजपा पर यह बात सच बैठ रही है। अयोध्या कांड के (खल)नायक कल्याण सिंह छह दिसंबर, 1992 के बाद हिंदू स्वाभिमान के प्रतीक बन गए थे। तब तक वह आम राय से चलते थे। बाद में वह भटक गए। उनके लिए एक ही राय (बताना जरूरी है क्या)अहम हो गई। सपा से निकाले जाने के बाद तो कल्याण एक जाति के भी गौरव नहीं रह गए लगते हैं। आडवाणी ने भी जिन्ना के मुद्दे पर धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़ना चाहा था, अब कहां हैं। अब लोग उनको हेय पुरुष मानने लगे हैं।
भाजपा के साथ लगातार चल रहे घटनाक्रम से लगता है कि भाजपा को अभी किष्कंधा कांड देखना है। भाजपाइयों को सुंदरकांड का पाठ करना होगा। लंका कांड यानी रावण(वक्त के साथ बदलते रहते हैं। आप अनुमान लगाएं और बताएं )का बध भाजपा के लिए अभी बहुत दूर है। सभी को मालूम है कि लंका कांड बगैर राम राज्य की कल्पना साकार नहीं होगी।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

जब तोप मुकाबिल हो...

चुनाव की चखचख के बीच नामी पत्रकार जरनैल सिंह द्वारा केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम पर जूता फेंकने(जूता उछालना ज्यादा ठीक है) की घटना ने काफी कुछ कह दिया है। इस पर अभी बहस और चर्चाओं का सिलसिला चलेगा। मामला आखिरकार पत्रकारों से जुड़ा है। मैं जल्दी में अपनी प्रतिक्रिया के लिए शब्द ही नहीं तलाश पाया। चिंतन-मंथन के बाद मैंने कुछ इस तरह सोचा हैः

1. जूतों का व्याकरणीकरण और मुहावरीकरण यों ही नहीं हुआ। जब कोई कहता था कि जूतों में दाल बंट रही है तो कुछ भी समझ में नहीं आता था। फिर सुना कि मियां की जूती मियां की चांद भी मुहाबरा है। इसको निजी क्षेत्र में काम करने वाले जब-तब महसूस करते हैं। कई बार आदमी अपने झूठ और गलतियां छिपाने के लिए कह देता है कि आपका जूता मेरा सिर।

2 जूतों का बाजारीकरण तब हुआ था,जब मॉडल मिलिंद सोमण और मधु सप्रे ने एक जूते का विज्ञापन किया था। इसको लेकर पैदा हुए विवाद ने जूते की कदर बढ़ा दी। नहीं तो मेरे स्वर्गीय बाबा उजागर लाल मिश्रा ने एक बार उनके मात्र 60 रुपये के जूते लाने पर मेरे पिताजी को ताना मारा था कि 60 रुपये का जूता हो या छह रुपये का, पहना तो पैर में ही जाना है। शायद वह अपनी यूनाइटेड किंगडम निर्मित 60 रुपये की लाइसेंसी बंदूक की कीमत आंक रहे थे।

3। यों नेता आपस में खूब जूतम-पैजार करते ही रहते हैं। लेकिन उप्र की मुख्यमंत्री मायावती की पार्टी बसपा की ओर से जूतों का राजनीतिकरण कर काफी इज्जत बख्शी गई। उनके कार्यकर्ताओं ने नारा दिया था- तिलक तराजू और तलवार- इनको मारो जूते चार। हालांकि सर्वजन की पार्टी बनने की प्रक्रिया में मायावती ने इससे लगातार इनकार करती हैं। वह नेता कुछ भी कह सकती है। किसी भी बात से मना कर सकती हैं। तमाम नेता ऐसा करते रहे हैं। अब चुनाव हैं, रोज करेंगे।

4। जूतों का महत्व मुझे पत्रकारिता के शुरूआती दिनों में तब समझ में आ गया था, जब मैं लखनऊ विश्विवद्यालय की रिपोर्टिंग करता था। उस समय के एक प्रो-वाइस चांसलर(बाद में वह पूर्वांचल के एक प्रतिषिठत शैक्षिक संस्थान के दो बार कुलपति रहे)और छात्रों के बीच जूते चल गए थे। तब यह अंदर के पन्ने की भी खबर नहीं बनती थी। सो इसे मैंने इसे अपने साप्ताहिक कालम में दुस्साहस कर सर आओ, जूता-जूता खेलें शीर्षक से छाप दिया। फिर क्या था। छात्र आंदोलन पर आमादा हो गए। पीवीसी साहब दबंग छवि के थे। बावजूद इसके उन्होंने अपने एक अति विश्वस्त पूर्व छात्र और मेरे अच्छे मित्र के जरिए मुझसे एतराज जताने को कहा। अंततः पीवीसी साहब से आमने-सामने की मुलाकात हुई और जूता प्रकरण समाप्त हो गया।

5। जूतों का अंतरराष्ट्रीयकरण 14 दिसंबर, 2008 को तब हुआ, जब इराक के पत्रकार मुंतजर जैदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश जूनियर पर गुस्से का इजहार करने के लिए जूता फेंक कर मारा था। भारत के पत्रकार ने इस मामले में दूसरी पायदान हासिल कर ली। हम भारतीय नंबर एक पर रहने में शायद तौहीन समझते हैं।

6। इस संदर्भ में एक शोध किया जाना चाहिए कि जूता फेंकने की घटना में कहीं आर्यो-अनार्यों की उत्पत्ति, उनके ज्ञान और उनकी अनंत यात्रा और इनसे जुड़े मिथकों से तो कोई संबंध नहीं है।

7। जमाना बदल गया है। जरनैल का जूता बनाने वाली कंपनी को चाहिए कि वह जरनैल को अपना ब्रांड एंबेसडर बना लें। इससे युवा और हाल-फिलहाल पत्रकारिता संस्थानों में पढ़ रहे पत्रकारों को जबरदस्त प्रेरणा मिलेगी। वह इसे चीयर गर्ल जैसे कैरियर के तौर पर अपना सकते हैं। इसकी वजह है कि राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में पत्रकारों की कलम की कीमत कम हो गई है। वह कुछ भी लिखते रहें, शासन-प्रशासन के कान पर जूं नहीं रेंगती।

8। मौजूदा हालात को ध्यान में रखते हुए केंद्र और राज्य सरकार के मंत्री और नेताओं को ही नहीं, जिलास्तरीय अधिकारियों को ऐस व्यवस्था करनी होगी कि पत्रकार उससे मिलने से पहले अपने जूते बाहर उतार कर आएं। प्रेस कांफ्रेंस में जूते पहन कर आना वर्जित कर दिया जाए। प्रेस कांफ्रेंस स्थल को धर्मस्थल का दर्जा दिया जाए!

9। लेकिन जरूरी यह भी है कि एसी प्रेस कांफ्रेंस में माननीय मंत्री जी पूरी सत्यनिष्ठा से वक्तव्य दें। देश और समाजा से जुड़े़ सवालों पर गुमराह करने की कोशिश न की जाए। नेता इन आयोजनों का सांप्रदायिक उन्माद फैलाने, भ्रष्टाचारियों का बचाव करने और विरोधियों पर अनर्गल आरोप लगाने के लिए इस्तेमाल न करें।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

जय हो, कुख्यात हो गए...

एनडीटीवी के रवीश कुमार ने आज के हिन्दुस्तान में ब्लागर योगेश जादौन के ब्लाग बीहड़ के बारे में विस्तार से चर्चा की है। नहीं जानते जादौन साहब को। अरे वही, जो आजकल अमर उजाला आगरा में हैं। अपने ब्लाग पर वह छक्के लगाने से पहले नामी-गिरामी अखबारों के साथ जुड़े रहकर सिक्का जमा चुके हैं। डकैत-बदमाशों के बारे में लिखते-लिखते शरीफ जादौन साहब भी कुख्यात हो गए हैं। कहते हैं न- बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा। मुझे तो ब्लाग का ककहरा जादौन साहब ने ही सिखाया है। आप उन्हें बधाई देने से पहले उनके ब्लाग का एक चक्कर लगा लीजिए। फिर रवीश जी का आलेख पढ़िए आज के दैनिक हिन्दुस्तान में।
लगे हाथ मेरी मिट्टी के तेल के कारोबार से संबंधित चंद लाइनों पर भी गौर फरमा लें- अगर न होता मिट्टी के तेल का कारोबार। कितने लोग मिट्टी में मिल गए होते। मिट्टी के तेल के दाम मिट्टी से भी ज्यादा हैं। अधिकारी इन्हीं दामों का फायदा उठाते हैं। देश भर में डीलर बनाते हैं। बीपीएल कार्ड धारकों की यह मजबूरी है। वहां इससे ही रोटी बनना जरुरी है। इसकी एक और उपयोगिता है। पेट्रोल से इसकी प्रतियोगिता है। गरीब या अमीर महिला जब जान देती है या उसको जलाया जाता है। जलने-जलाने वाले मितव्ययी हो जाते हैं। वे पेट्रोल नहीं,केरोसिन आयल ही आजमाते हैं।