शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

बच्चों को बताना ही पड़ेगा...

जैसे व्यस्त मार्गो पर आए दिन सड़क दुर्घटनाएं होती हैं। आतंकी घटनाएं भी ऐसी ही होने लगी हैं। रेल हादसे जरूर कम हुए है। जब होते हैं, तो दर्जनों लोग काल-कलवित होते हैं। सड़क हादसों की प्रमुख वजह क्या है। अब हर आदमी की हैसियत वाहन खरीदने की है। घर का कोई बढ़ा जब दो पहिया से चार पहिया पर आता है। दो पहिया पर बच्चों की ट्रेनिंग व्हीकल हो जाता है। दुस्साहस दिखाते हुए यही बच्चे अस्पताल पहुच जाते हैं। सड़कों पर दुर्घटनाओं का अनुपात बढ़ गया है। एक बार तो रपट आई थी कि इस तरह से काल के गाल में समाने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। इसको ध्यान में रखते हुए ट्रैफिक और इसके रूल्स-रेगुलेशन को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया गया। बच्चों को इसके बारे में स्कूल-कालेज जाकर भी बताया जाने लगा है।
करीब डेढ़ दशक से ओजोन परत में छेद, ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण के बारे में भी बच्चे किसी भी आम नागरिक से ज्यादा जानने लगे हैं। ये जाररूकता बच्चों में इसलिए आ पाई, क्योंकि उन्हें पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने की प्रेरणा पूरे मनोयोग से दी गई। शिक्षकों ने उन्हें पर्यावरण के हर पहलू से से बकायदा परिचित कराया गया। हम भले ही पालीथिन का इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहे हैं, पर हमारे बच्चों को इससे होने वाले नुकसानों के बारे में सब कुछ पता है। प्राइमरी के बाद के विद्यार्थियों को सेक्स एजूकेशन दिए जाने पर थोड़ी-बहुत ना-नुकर के बाद करीब-करीब सहमति बन रही है।
ऐसे में जरूरी हो जाता है। टीवी पर मुंबई की लाइव मुठभेड़ और कमांडो कार्रवाई देख रहे नौनिहालों को आतंकवाद पर उसी तरह से बताया जाए, जैसे हम इतिहास को पढ़ाते हैं। बच्चों को बताना होगा कि अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और ब्रिटेन के मेट्रो रेलवे पर हमले किस नापाक मकसद के लिए किए गए थे। उनके लिए यह जानना भी बेहद जरूरी होगा कि 1993 में मुंबई में पहली बार हुए सीरियल बम ब्लास्ट के पीछे हमारी क्या खामियां रही थीं। इन्हें हम आज तक शायद दुरुस्त नहीं कर पाए हैं। 1999 में हमें किन हालात में अजहर मसूद को जम्मू जेल से रिहा कराने के बाद तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने कंधार ले जाकर छोड़ा था। हो सके तो यह भी बताया जाए कि मालेगांव विस्फोट में हिंदू आतंकियों और सेना की क्या भूमिका थी।

कोई रहनुमा नहीं आएगा...

लगता है कि मुंबई में आतकियों की हरकत से हम कोई सबक नहीं सीख ऱहे हैं। अमेरिका में 9-11 के बाद और बाद में ब्रिटेन में हमलों के बाद आतंकवाद से निपटने की जैसी इच्छा शक्ति वहां की जनता में दिखाई पड़ी थी, वैसी अपने यहां नहीं दिख रही। 40 घंटे बीतने को हैं, लेकिन सुरक्षा बलों के अलावा सभी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। यह भी कह सकते हैं कि चिंता को जुवां नहीं मिल रही है। ऐसा भी नहीं है कि सभी नेता-अभिनेता शोकग्रस्त हैं, पर सामने आकर देशवासियों से अपील तक करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। आखिर आतंकवाद को राष्ट्रीय स्वाभिमान के साथ क्यों नहीं जोड़ा जा पा रहा है।
चाहे वह पाकिस्तानी आतंकवाद हो या और हमारे देश में ही बैठे लोगों द्वारा की जा रही करतूतें हों। आतंकवाद हमारी राजनीति का मुद्दा तो रहा, लेकिन चिंता की मुख्य वजह नहीं बन पाया। उदारीकरण ने हमारी सोच को संकुचित कर दिया है। हमारे लिए समाज और देश के मायने भी बदल गए हैं। राजनीतिज्ञों ने जनता का जितना इस्तेमाल अपने लाभ के लिए किया, जनता उससे कहीं ज्यादा उनका इस्तेमाल करने की सोचने लगी। हालांकि इसमें जनता हार गई, पर उसने कहना शुरू कर दिया कि राजनीति ने देश का बंटाधार कर दिया है। यह कहने वालों की भी कमी नहीं है कि देश को मरे हुए लोग चला रहे हैं।
बात सही भी है। याद कीजिए देश का वह दौर, जब उत्तर प्रदेश के सरकारी कार्यालयों, अस्पतालों और रोडवेज की बसों पर एक तरफ लिखा रहता था कि परिश्रम के अलावा और कोई रास्ता नहीं। दूसरी तरफ अनुशासन ही देश के महान बनाता है, संदेश होता था। अब कड़ी मेहनत, पक्का इरादा, दूर दृष्टि जैसे प्रेरणादायी स्लोगन ही खत्म नहीं हो गए। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दे भी अपना महत्व खो चुके हैं। बहुतों को तो यह भी पता नहीं होगा कि ये सब बातें किसने कही थीं। भारीत 21वीं सदी में ले जाने का सपना देखने और दिखाने वाले राजीव गांधी भी असमय काल का शिकार हो गए। बाद में बुनियादी बातें कभी नहीं कहीं गईं। इंडिया शाइनिंग और फील गुड का गुब्बारा फूलने और उड़ने से पहले ही फट गया .
क्या माना जाए कि देश को मरे हुए नेता ही चलाते रहे हैँ। आज के नेताओं को मजबूरी के चलते भी कोई नेता नहीं मान पा रहा है। गरीबी, बेरोजगारी के मामले में तो नेता कुछ भी बोलने से शायद इसलिए ही बच रहे हैं। यह हमले नेताओं के प्रति बढ़ते हुई अनास्था का ही नतीजा है।
यह भाषण नहीं है। इस समय देश को एकजुटता की जरूरत है। ऐसी ताकत की आश्यकता है, जो दुनिया को बता दे कि आतंकवाद का मुकाबला हम जाति और संप्रदाय में बटे बगैर करेंगे। चूकने पर हम एक बार फिर से सहानुभूति (अंग्रेजी में सिम्पैथी) के पात्र बन जाएंगे। जब हमें आयुर्वेद,एलोपैथी और होम्यैपैथी का इलाज मालूम है, तो सिम्पैथी की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।

बुधवार, 26 नवंबर 2008

मरने वाले खुशकिस्मत हैं...

मुंबई में बुधवार रात हुए आतंकी हमले में मारे गए 100 से ज्यादा लोग खुशकिस्मत हैं। नेता-मंत्री उनके घर आएंगे और कहेंगे कि वह व्यक्ति देश के लिए बलिदान हो गया। प्रशासनिक अधिकारी हमले में मृत परिवारों के परिजनों को तरह-तरह की सांत्वना देंगे। टीवी चैनल बार-बार उनके शव दिखाएंगे। परिवारवालों को रोते-बिलखते हुए दिखाएंगे। मरने वालों में से कई की वीरता और साहस की कहानियां अखबारों में प्रमुखता से छपेंगी। कुछ दिन तक तरह-तरह की अटकलें लगाई जाती रहेंगी। कोई कहेगा कि यह मालेगांव विस्फोट के मामले को ज्यादा तूल देने का नतीजा है, तो यह कहने वाले भी कम नहीं होंगे कि सरकार आतंकवाद के मोरचे पर सबसे ज्यादा कमजोर साबित हुई है।
आज मध्यप्रदेश में मतदान हो रहा है। राजस्थान और दिल्ली में मतदान होना है। क्या राजनीतिक लाभ के लिए कोई राजनीतिक दल भी यह काम कर सकता है। बदकिस्मत हैं, वे लोग जिन्हें न तो आतंकियों की मजबूत गोली लगी और न ही पुलिस की गोलियां इनकी जान ले पाईं। इनके दुर्दिन आ गए हैं। घायलों को अपने जख्मों से ज्यादा पुलिस और अन्य विभाग के अफसरों द्वारा पूछे जाने वाले सवालों की चिंता करनी पड़ेगी। वे पूरे मामले में चाहकर भी निर्दोष नहीं रह पाएंगे। अस्पतालों और नर्सिंग होम्स में उनका इलाज न जाने कब ठप पड़ जाएगा, क्योंकि कोई मंत्री और नेता वहां टपकने वाला होगा। उन्हें मंत्री जी और नेताओं के घड़ियाली आंसू देखने पड़ेंगे। झूठे दावे और खुद उसके लिए कोरे आश्वासन बरदाश्त करने पड़ेंगे। उनको और उनके घर वालों को उनका उद्धार करने के सपने दिखाए जाएंगे। इस काम को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनियां गांधी, भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार लाल कृष्ण आडवाणी सभी करेंगे। चुनावी मुद्दा बनाने की बात की जाएगी। दिल्ली में विस्फोट के बाद अपने सूट्स को लेकर चर्चा में रहे गृह मंत्री शिवराज पाटिल शायद फिर दोहरा दें कि पोटा को फिर से नहीं लागू किया जाएगा। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह आतंकी गतिविधियों के लिए तुरंत पाकिस्तान को आड़े हाथ लेते हुए उस पर हमला करने की भी बात करेंगे। वह तब भूल जाएंगे कि उनकी पार्टी के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ आर-पार की लड़ाई का ऐलान किया था और लाहौर पहुंच गए थे।
कुछ दिन तक ये सब घायलों को ही नहीं, देशभर के आहत लोगों को मजबूरी में सुनना होगा। कुछ स्कूलों के बच्चे मरने वालों की याद में धर्मस्थलों, सार्वजनिक स्थानों और समुद्र और अन्य नदियों के किनारे मोमबत्तियां जलाकर मृत आत्माओं की की शांति के लिए आयोजन करेंगे। टीवी और अखबार वाले जब पूरी व्यवस्था में खामियों और अफवाहों का जिक्र करते-करते थक जाएंगे, स्पेशल कमेंट देने वाले खूबसूरत और प्रतिष्ठित चेहरों के विचार सूख जाएंगे, तो सब कुछ भुला दिया जाएगा। कुछ घायलों की देर से होने वाली मौत खबर नहीं बन पाएगी। घायलों में अगर कोई जीवन भर के लिए अपाहिज हो गया होगा, तो उसको मुआवजा भी शायद ही मिले। अगले साल 26 नवंबर पर मरने वालों की बरसी मनाई जाएगी। इसी बहाने उनको याद कर लिया जाएगा, लेकिन घायल लोगों को तब भी शायद ही याद किया जाए।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

सबके सब लाचार...

अमेरिका से शुरू हुई मंदी की मार भारत में भी पहुंच गई है। प्रधानमंत्री भरोसा दिला रहे हैं कि हमारा देश मंदी से मुकाबला करने में सक्षम है। हम इस पर पार लेंगे। यों भी मंदी हो या महंगाई सरकारों पर इससे खास फर्क पड़ता नहीं। उन्हें तो पांच साल के लिए जनता अपनी किस्मत का फैसला करने के लिए चुन ही लेती है। उनका काम आंकड़ेबाजी में देश को उलझा देना भर रहता है। आश्चर्य की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री महंगाई की दर 12 फीसदी से ऊपर पहुंचने पर भी विकास दर आठ फीसदी रहने का आश्वासन देते थे। आज विश्वव्यापी मंदी के दौर में वह इससे पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। यह तब जब दुनिया के ज्यादातर देशों में यह दर चार फीसदी के आसपास आ गई है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री भी हैं। वह वित्त मंत्री से पहले रिजवर् बैंक के गवर्नर भी रह चुके हैं। बतौर प्रधानमंत्री उनके काम करने के तरीके पर व्यंग्य भले ही कितने भी किए गए हों, सवाल कम ही उठे हैं। लेकिन महंगाई और मंदी के बाद उनके बयानों पर विश्वास आर्थिक क्षेत्र के दिग्गज भी नहीं कर पा रहे हैं। यह अनायास नहीं है। शेयर बाजार लगातार गिरता ज्यादा है, संभलता कम। कच्चे तेल के मूल्य में कमी आ रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां छंटनी कर रही हैं। लोग डरे-सहमे हुए हैं। माना कि ऋणं कृत्वां घृतमं पिवेत... की सोच देने वाले चार्वाक के भारत में मितव्ययता की प्रवृत्ति है। यहां लोग चार पैसा कमाते हैं, तो आने वाले दिन के लिए एक पैसा सहेज कर रखते हैं।

लेकिन ध्यान रहे कि मनमोहन सिंह के वर्ष 1991 की नरसिंहराव सरकार में वित्त मंत्री बनने के बाद से देश में उदारीकरण की बयार चल निकली थी। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए के शासनकाल में इसका दूसरा दौर शुरू हुआ था। बाद में प्रधानमंत्री बनने पर मनमोहन सिंह ने इसे और गति दे दी। बैंकों ने कर्ज देने में कंजूसी नहीं की। लोन चाहिए। कुछ औपचारिकताएं पूरी करिए। मकान के मालिक बन जाइए। कार खरीद लीजिए। लोगों ने पर्सनल लोन लेकर शेयर खरीद लिए। कुछ सयानों ने फिक्स्ड डिपाजिट कर दी। इस जाल रूपी सुविधा ने आम आदमी में संचय की प्रवृत्ति को रोक दिया। अब बाहर से चमकने वाले लोग कितने कर्ज में लदे हुए हैं,अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसीलिए महंगाई को लेकर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया ही आकर रह गईं। कहीं कोई जन आंदोलन नहीं हुआ। कभी दिल्ली की सरकार को हिला देने वाले प्याज की महंगाई अब आम आदमी को हो सकता है, याद भी न रही हो। उत्तर प्रदेश में आलू किसान अब मंदी की मार झेल रहा है। किसानों ने कोल्ड स्टोरों से आलू निकालने पर उतनी कीमत तक नहीं निकल रही है कि वे उसे बेचकर उसका किराया भी अदा कर सकें। किसे चिंता है।

यूपीए सरकार तो लोकसभा चुनाव की तैयारियों में लगी हुई है। केंद्रीय कर्मचारियों की तनख्वाह बढ़ गई है। उनकी छंटनी न करने का भरोसा दिया जा रहा है। केंद्र को मालूम है कर्मचारियों की नाराजगी की मतलब। संभव है कि एक-दो महीने में पेट्रोल-डीजल की कीमतें भी कम कर दी जाएं। जिस दिन ये हो, समझ लेना कि दो महीने में चुनाव हो जाएंगे। वैसे भी लोकसभा के चुनाव मई में होने ही हैं। तो फिर आते हैं,मुद्दे की बात पर। मनमोहन सिंह चुनावी भाषण की तैयारी करने लगे हैं। इसमें परमाणु करार का मुद्दा शायद ज्यादा लोगों को समझ नहीं आएगा। मंदी के बादल छंटे नहीं। महंगाई फिर सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी होगी।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

हम तो आहत हैं...

दुनियाभर को सहिष्णुता का संदेश देने वाले भारत में सेना और साधु-संतों के आतंकवाद के घिनौने कृत्य में संलिप्तता के सबूत मिलने से प्रत्येक व्यक्ति आहत है। रोज-रोज हो रहे नए खुलासे सोचने को मजबूर कर रहे हैं। लेकिन क्या सोचेंगे। देश की जनता अभी तक उन मठाधीशों की ही असलियत नहीं जान पाई है,जो जाति और धर्म के नाम पर बरसों-बरस से लोगों को छल रहे हैं। धर्म को तथाकथित ठेकेदारों ने अपना बंधक बना लिया है। रूप अलग-अलग हैं, लेकिन इन्हें नेताओं का भरपूर प्रश्रय मिला हुआ है। आज साध्वी प्रज्ञा,स्वामी अमृतानंद उर्फ दयानंद पांडेय उर्फ सुधाकर द्विवेदी का नाम सामने आ गया है,तो फिर से चर्चाएं चलने लगी हैं, लेकिन कितने दिन चलेंगी। विधानसभा चुनाव हो जाने दीजिए। यह खत्म हो जाएगा। छह दिसंबर,1992 और क्या उससे पहले इसकी बुनियाद नहीं पड़ गई थी। मंडल आयोग की सिफारिशों ने हिंदुओं के बीच कलह नहीं बढ़ाई थी। आज की अधेड़ पीढ़ी तब युवा थी। उसने जाति-धर्म की दीवारों को काफी हद तक तोड़ दिया था। उसके दिमाग में दलित और सवर्ण को अलग- अलग करने की बातें कम ही आती थीं। इन सबके पीछे राजनीतिज्ञ थे, सो हर आदमी उसी के हिसाब से तर्क कम कुतर्क ज्यादा देने लगा। विचार करके देखिए। यह राजनीतिक बात है। देश में उसके बाद से ही बहुजन समाज पार्टी का दबदबा बढ़ता है और वामपंथी हाशिए पर चले जाते हैं। ताज्जुब की बात है। इस पर फायरब्रांड प्रवीण तोगड़िया जी चुप्पी साधे हुए हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस पर अपनी बात नहीं कह रहे हैं। जम्मू कश्मीर में भी नब्बे के दशक में आतंकवाद तब बढ़ा, जब मौलाना और मौलवी ही नहीं, धर्मगुरु भी वहां के आवाम को उकसाने लगे। कितने लोग जानते हैं कि जम्मू कश्मीर में सबसे पहले भूमि सुधार कानून लागू किए गए। सबसे ज्यादा सेक्युलर राज्यों में उसकी गिनती होती है। कश्मीर में मुसलिम समाज की प्रगतिशील सोच देखिए कि वहां एक से अधिक शादियों को अच्छा नहीं माना जाता। दक्षिण भारत के एक शंकराचार्य पर हत्या का मुकदमा किस बात की ओर इशारा करता है। इतिहास गवाह है कि इस देश के नौजवानों को नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने यह कहकर ही एकजुट किया था कि तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। महात्मा गांधी से बड़ा सोशल इंजीनियर कौन हुआ है आज तक दुनिया में। संचार के गिने-चुने साधनों के बावजूद बापू की एक आवाज आदेश बन जाती थी। उस पर अमल होता था। चाहत तो आजादी की थी। आज भी जरूरत है आजादी की। एक नए किस्म की आजादी की। कारण, हिंदू समाज को बसुधैव कुटुंबकम और सर्वे भवंतु सुखिना, सर्वे संतु निरामया की सोच को सार्थक करना है।

बुधवार, 12 नवंबर 2008

बच्चों का एक ही दिन क्यों

14 नवंबर क्या आया, सभी को बच्चों की याद आने लगी। उनके सुख-दुख पर चिंता जताने के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रम आयोजित किए जाने की तैयारियां चल रही हैं। यह कितनी गंभीर बात है कि जहां नौनिहालों को स्कूल में बुलाने के लिए मिड-डे मील जैसी योजनाएं चलाई जाती हैं, वहां बच्चों के मां-बाप इसमें खास दिलचस्पी नहीं ले रहे। इसका फायदा स्कूलों के मास्टर साहब खुलेआम उठा रहे हैं। प्रशासन के अधिकारी भी इसमें पीछे नहीं हैं। भ्रष्टाचार की बहती गंगा में उनके लिए हाथ धोना कोई नई बात नहीं है। करीब दो साल पहले 14 साल के कम उम्र के बच्चों को घरेलू काम करने पर पाबंदी का नियम बनाया गया था, पर उसका क्या हुआ। उस आदेश पर मानीटिरंग कमेटियां बनीं। लिखा-पढ़ी के साथ-साथ खूब तमाशा हुआ। पर सोचने की बात यह है कि इस पर ध्यान किसने दिया। समाज के सबसे बड़े ठेकेदार यानी नेता भी इस मुहिम में सामने नहीं आए। उल्टे आज चार राज्यों में हो रहे चुनाव में पोस्टर-बैनर लगाने के काम में सबसे ज्यादा यही बच्चे लगे हुए हैं। बिडंवना तो यह है कि बाल दिवस को 14 नवंबर को मनाया जाता है। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का यह जन्मदिन भी है। बच्चे फैक्ट्रियों में काम कर रहे हैं। वजह, उन्हें अपने परिवार का पेट पालना है। बच्चों का यह हाल उस प्रधानमंत्री के देश में है, जो बच्चों को बेइंतहा प्यार करता था। बच्चे जिन्हें प्यार से चाचा कहते थे। कभी-कभी तो लगता है कि अगर बाल दिवस पहले प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर न मनाया जाता, तो अब तक इसे मनाना ही बंद कर दिया गया होता। ताज्जुब की बात है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बालकों की खरीद-फरोख्त, उनके साथ अप्राकृतिक यौनाचार, उनके मादक पदार्थों के धंधे में इस्तेमाल किया जाता है और औसत हिंदुस्तानी सिनेमा हाल में आमिर खान की फिल्म तारे जमीं पर देखकर रोते हुए निकलता है। भूतनाथ में एक बच्चा ही है, जो अतृप्त आत्मा को इस दुनियादारी से मुक्ति दिलाता है। बच्चे हमारे लिए क्या कर रहे हैं और हम। कल जब बच्चे बड़े होकर इसका जवाब मांगेगे, तो हमें अपना मुंह छिपाना पड़ेगा। बड़े इसे अपने कुतर्कों से जनरेशन गैप भी करार दे सकते हैं। क्या जरूरी नहीं कि हम इस बार के बाल दिवस से अपने और अपने पड़ोस के एक बच्चे के बारे में कुछ करें। पता नहीं, इनमें से बागवान का आलोक बनकर हमारे काम आ जाए। यह भी ध्यान रखिए कि बच्चे मन के सच्चे होते हैं। इन्हें अपना अभावों में गुजरा बचपन ही नहीं, उस दौर के छोटी मदद करने वाले, आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने वाले हमेशा याद रहते हैं।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

आभार, नमस्कार

मेरे ब्लाग पर आने के लिए जिन लोगों ने स्वागत किया उनका बहुत-बहुत आभार। जिन्होंने नहीं किया उनको नमस्कार। शायद अभी मेरे नए-पुराने कई साथियों को यह पता ही नहीं है कि मैं भी ब्लागरों की विरादरी में शामिल हो गया हूं। बावजूद इसके बेहिचक सुझाव देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मान लिया कि राजनीतिक आलेख ही नहीं लिखूंगा। समाज से जुड़े और भी विषय हैं। रोजाना लिखने की कोशिश में हूं।

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

अमेरिका में चुनाव

अमेरिका में चुनाव हो गए। बराक हुसैन ओबामा ने रिकार्ड बनाते हुए जीत हासिल कर ली। ये तो होना ही था। इसमें कुछ नया नहीं है। इस चुनाव में नया यह है कि दुनिया के सबसे पुरानी लोकतांत्रिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए इस बार वहां की जनता ने बड़े उत्साह से वोट डाले हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि मतदान में युवा वर्ग की हिस्सेदारी 60 फीसदी से अधिक रही। इसे रिपब्लिकन जार्ज बुश की नीतियों के प्रति नाराजगी ही न माना जाए। नई पीढ़ीं में वोटिंग को लेकर उत्साह को लोकंतत्र के प्रति आस्था के तौर पर क्यों नहीं देखा जाना चाहिए।
इसके उलट भारत में वोटिंग को लेकर हर उस व्यक्ति की रुचि घटती जा रही है, जो खुद के जागरुक होने का दावा करते हुए नियम-कानून के पालन करने वालों में सबसे ऊपर रखता है। आपातकाल और 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद हुए चुनाव में जरूर भारी मतदान हुआ। बाद के चुनावों में मतदान के आंकड़ों से तो यह नहीं लगता कि भारतवासियों को लोकतंत्र में विश्वास रह गया है। देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली तक का हाल बुरा है। जब से दिल्ली में विधानसभा का गठन हुआ है, तीन बार चुनाव हो चुके हैं। शायद ही कभी मतदान 50 फीसदी से ज्यादा गया हो।
सरकारों और चुनाव आयोग का इसका अहसास है। एक दिन टीवी पर दिखाया जा रहा था कि दिल्ली में मतदान में भाग लेने के लिए मुहिम चलाई जा रही है। कहा जा रहा है कि मतदाता पहचान पत्र आपके बैंक एकाउंट खोलने, ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने, पासपोर्ट हासिल करने के लिए ही नहीं है। इसका इस्तेमाल वोट डालने के लिए भी करें। देख-सुनकर अच्छा लगा कि अगर लोगों को एेसे ही कुछ और अहसास दिलाए गए, तो मतदान का प्रतिशत बढ़ जाएगा। क्या सरकार कानून बनाकर मतदान को हर नागरिक के लिए जरूरी करने के बारे में नहीं सोचेगी।