tag:blogger.com,1999:blog-59907794983229487132024-02-08T06:02:44.106-08:00बोले तो...जानने से ज्यादा जरूरी है समझनाप्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.comBlogger25125tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-14307552587362797132012-07-30T02:10:00.001-07:002012-07-30T02:10:19.558-07:00हम न समझे थे बात इतनी सी...हम न समझे थे बात इतनी सी...
फेसबुक का चेहरा बहुत दिन देख लिया। पुराने दोस्त भी बहुत मिल गए। अब फिर ब्लाग पर वापसी की तैयारी है। दरअसल, फेसबुक पर गंभीर बहस की गुंजाइश कम लगती है। ज्यादातर मामलों में तो लगता है कि सब अपने-अपने फोटो के साथअपना प्रचार कर रहे हैं। सभी अपनी-अपनी फ्रेंड लिस्ट बढ़ाने में जुटे हैं। मानो, जिसके जितने दोस्त,वह उतनी ही बड़ा सरोकारी और जानकार।
दूसरी तरफ वास्तविकता यह है कि सामाजिक सरोकार, राजनीतिक परिवर्तन और अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर सतही चर्चा से काम नहीं चलता। ये सतत चिंतन-मंथन का प्रक्रिया है।
माना कि फेसबुक आसानी से ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचने का साधन है, लेकिन ये तेजी जितनी जल्दी जिज्ञासा जगाती है, उतनी ही जल्दी से उसे खत्म भी कर देती है।
ब्लाग उन लोगों के लिए है, जो कुछ विचार रखते हैं। उनके पास एक सोच है और वे किसी मुद्दे पर बहस चाहते हैं। इस बहस को कोई दिशा देना चाहते हैं।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-18821721327182928892010-09-27T02:12:00.000-07:002010-09-27T02:14:58.122-07:00मंगल भवन अमंगल हारी...28 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या से जुड़े मामले की सुनवाई हो रही है। सुप्रीम कोर्ट बताएगा कि इस मामले में सुलह की गुंजाइश क्या-क्या हो सकती है। लेकिन देखना यह है कि इसमें कितने पक्षकार उपिस्थत होते हैं। यदि सभी पक्षकार मंगलवार को मौजूद होते हैं, तो माना जा सकता है कि अभी इस मामले में बातचीत का रास्ता ही अंतिम हो सकता है, अन्यथा की स्थिति में पक्के तौर पर कोई कुछ नहीं सकता है। <br />किताबों में पढ़ा है। अयोध्या माने अवध। यहां कोई वध नहीं हुआ। फिर इसके लिए कई वर्ष से चली आ रही जद्दोजहद, पेशबंदी, बेचैनी, भय, असुरक्षा, हिंसा, खून-खराबा, अदालती हस्तक्षेप, बातचीत, अलग-अलग वादे-इरादे क्यों हो रहे हैं। अब तो भारत दुनिया की महाशक्ति बनने की ओर बढ़ रहा है, तो भी हम हिंदू-मुसलमान, अगड़े-पिछड़े के पाट में पिस रहे हैं। <br />बहुत लोगों को याद होगा। 1989 का आरक्षण विरोधी आंदोलन और 1992 का मंदिर आंदोलन। दोनों से देश को क्या मिला। पिछड़ों को आरक्षण से अगड़ों की प्रतिभा प्रभावित हो गई या फिर अयोध्या में भव्य मंदिर बन गया। मंडल के मसीहा वीपी सिंह को आज कितने लोग याद करते हैं। रथयात्रा निकालने वाले लाल कृष्ण आडवाणी आज अपनी ही पार्टी में कहां हैं। परिंदों के भी पर रोकने का दावा करने वाले मुलायम सिंह यादव और आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद खुद-ब-खुद शौर्य चक्र हथियाने वाले लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक हालत किसी से छिपी नहीं है। उस समय की साध्वी ऋतंभरा आज दीदी मां बनकर आश्रम चला रही हैं, तो उमा भारती भाजपा में वापसी के लिए छटपटा रही हैं। विहिप के अशोक सिंघल और भाजपा के विनय कटियार को वृंदावन के सुरेश बघेल की कोई फिक्र है। बघेल को 1990 में अयोध्या के विवादित स्थल पर डायनमाइट की छड़ लगाते पकड़ा गया था। अब यही बघेल एक भाजपा सांसद की चाकरी कर रहा है। उस गरीब की बच्ची ऋतंभरा की ओर से संचालित संविद स्कूल में प्रवेश के लिए बेचैन है।<br /> इसी तरह एक समय समूचे मुसलिम समाज की नुमाइंदगी करने वाले शहाबुद्दीन को उनकी कौम कितना जानती है। जफरयाब जिलानी पक्षकार के नाते जाने जाते हैं। <br />23 सितंबर को हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मेरे एक पढ़े-लिखे परिचित ने दावे के साथ कहा था। ठीक रहा। शुक्रवार को ज्यादातर फैसले मुसलमानों के पक्ष में होते हैं। शुक्रवार को भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच का नतीजा भी पाकिस्तान के पक्ष में होता है। चूंकि आंकड़े नहीं मालूम थे, इसलिए बहस का मतलब नहीं था। इस बहाने एक मानसिकता का खुलासा हुआ। अब देश की सबसे बड़ी अदालत में मंगलवार को सुनवाई हो रही है। सो इस बारे में उनसे कल की सुनवाई के बाद बात की जाएगी। देखेंगे वह क्या तर्क देते हैं।<br />देश और उत्तर प्रदेश के लोग चाहते हैं कि अब इस मामले का फैसला हो जाए। यह ठीक है। सवाल यह है कि क्या पक्षकार भी यही चाहते हैं। क्या इन्हीं मुद्दों पर राजनीति की रोटी सेंकने वाले भी यही चाहते हैं। चुप्पी से कुछ नहीं होगा। बोलना नहीं कुछ करना पड़ेगा। दोनों पक्ष थोड़ा-थोड़ा भी नरम पड़े, तो हो सकता है कि हम एक नया इतिहास लिख दें। भारत में कई बार इतिहास अनायास बन जाता है। एक बार कोशिश करने में क्या जाता है। शायद 1992 का कलंक खत्म हो जाए। इसीलिए ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चयनित शायर शहरयार के शब्दों में कह रहा हूं-बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए...।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-29707594392955045342010-01-28T00:52:00.000-08:002010-01-28T00:54:51.993-08:00ठाकुर तो गयो...राजनीति में कुछ भी हो सकता है। कोई सोच भी नहीं सकता था कि ठाकुर अमर सिंह और समाजवादी पार्टी के आल-इन आल मुलायम सिंह में कभी खटास आएगी। लेकिन अमर सिंह के जन्मदिन पर टकराव शुरू हो गया है। फिल्मी गांनों और शेर-ओ-शायरी को अपने तर्कों-कुतर्कों और वितर्कों में शामिल करने वाले अमर सिंह मन ही मन कह रहे होंगे कि दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है। <br />वजह यह नहीं है कि मुलायम से उनकी दोस्ती टूट गई है। वजह यह है कि अभी तक उनके आदरणीय नेताजी ने उनसे राज्यसभा सदस्यता के बारे में कुछ नहीं कहा। उलटे उनके सिपहसालार मोहन सिंह ने प्रवक्ता बनते ही अमर सिंह को राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने की नसीहत दे डाली। अमर सिंह को बताया जा रहा है कि पार्टी छोड़ने के बाद राज्यसभा में बने रहना अनैतिक है। वक्त-वक्त की बात है। कभी सपा में सिर्फ अमर सिंह ही बोलते थे। वह जो भी बोलते थे उसे पार्टी के लोग मानते थे और दूसरे दलों के नेता उस पर प्रतिक्रया देते थे। कुछ ही दिन में हालत यह हो गई कि अमर सिंह को दी गई सलाह, उन पर लगाए गए आरोपों के बारे में उन्हें खुद सफाई देनी पड़ रही है। अपने किस्सों, अपने रिश्तों, अपने पुराने और नए समर्थकों के बारे में जानकारियां और राय अपने ब्लाग पर दे रहे हैं। ब्लाग अंतरराष्ट्ीय मंच है, सो उस पर टिप्पणियां भी खूब आती हैं। यह अलग बात है कि इन टिप्पणियों में वह तबका शामिल नहीं है, ठाकुर अमर सिंह जिसे एकजुट करने की वकालत कर रहे हैं। ठाकुर साहब अभी भी कह रहे हैं कि वह नेता जी यानी मुलायम सिंह यादव के राज नहीं खोलेंगे। इसे क्या माना जाए कि कभी धरतीपुत्र कहे जाने वाले मुलायम सिंह षडयंत्रकारी भी रहे हैं। अमर सिंह कह रहे हैं कि मुलायम परिवारवादी हैं, लेकिन वह इसमें उनके सांसद पुत्र अखिलेश यादव को शामिल नहीं कर रहे हैं। वह उनकी तारीफ-दर-तारीफ कर रहे हैं। अमर सिंह अखिलेश की तारीफ करते समय शायद यह याद नहीं करते कि मुलायम सिंह यादव की उन्होंने कैसे और क्यों फिल्म स्टारों और उद्योगपतियों में घुसपैठ कराई थी। जमीन से उठाकर उन्हें हवाई नेता बनाने के लिए उन्होंने क्या किया था। भारत माता को डायन कहने वाले आजम खान को उन्होंने नेता जी से क्यों दूर कर दिया। कल्याण सिंह के बारे में अमर सिंह सफाई दे चुके हैं। जनेश्वर मिश्र को श्रद्धांजलि देते हुए उनको नमन कर चुके हैं। रामगोपाल के बारे में वह चुप्पी साध जाते हैं। बावजूद इसके सपा के दायरे को बढ़ाने के लिए रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को पार्टी का समर्थन देने और इस पर होने वाली किरकरी को झेलने के अलावा और भी हैं तमाम सवाल हैं और इनका जवाब ठाकुर साहब ही दे सकते हैं। <br />मूलत अध्यापक मुलायम सिंह के प्रति आस्था रखने वालों को यह समझ में नहीं आता कि उन्होंने रहीम को नहीं पढ़ा होगा। रहीम ने ही कहा था रहिमन देख बडे़न को लघु न दीजिए डार, जहां काम आबै सुई कहा करै तलवार। तलवार से तिलक कराने चले थे मुलायम सिंह। उन्हें यह तो सोचना चाहिए था कि अब सामंतशाही नहीं है। वोटर प्रजा नहीं रह गया है। फिल्मी कलाकारों के लटके-झटके वह अपने घर के टीवी पर भी देख लेता है। सामने कोई मुन्ना भाई आ जाता है तो वह उसे देख लेता है। वोट वह उसे देता है, जो उसके पारिवारिक आयोजनों में शामिल होता है। उन्हें दुख के मौके पर सांत्वना देता है। उससे उसका कोई मतलब नहीं होता, जो सरकार बनने पर झंडे बदलकर डग्गेमारी और ठेकेदारी करते हैं। उनसे वह दिल से नफरत करता है, जो जातीय आधार पर उत्पीड़न करते हैं। मुलायम क्यों नहीं मान लेते कि उनकी पार्टी प्रांतीय है। स्वर्गीय रामशरण दास निजी बातचीत में कहते थे कि वह राष्ट्ीय पार्टी के प्रांतीय अध्यक हैं और मुलायम सिंह प्रांतीय पार्टी के राष्ट्ीय अध्यक हैं।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-77513721540555620392009-12-15T11:38:00.000-08:002009-12-15T11:41:13.718-08:00बहन जी कहां जाएंगी...बीते करीब एक सप्ताह से मेरी चिंता कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। चिंता भी अकेले की होती तो कोई बात नहीं। सच, किसी से भी नहीं कहता। लेकिन काफी चिंतन-मंथन के बाद भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा हूं। पोस्ट लिखने का मकसद भी यही है। कारण, किताबों में पढ़ा है कि जब समझ में आना बंद हो जाए, तो कुछ भले लोगों के साथ चरचा कर लेनी चाहिए। <br />अब आते हैं चिंता के पहलुओं पर। हुआ यह कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमत्री आदरणीय बहन जी कुमारी मायावती जी ने प्रधानमंत्री ड. मनमोहन सिंह को दो चिट्ठियां लिखी हैं। दोनों पत्र उन्होंने पूर्व केंद्रीय श्रम मंत्री के चंद्रशेखरराव को केंद्र सरकार द्वारा आंध्र प्रदेश से अलग कर तेलंगाना राज्य बनाने के आश्वासन के बाद लिखे हैं। पहले पत्र में उन्होंने बुंदेलखंड और हरित प्रदेश बनाने के लिए पत्र लिखा, जबकि दूसरे पत्र में उन्होंने पूर्वांचल की मांग की। मेरे सामने संकट यह है कि मैं तीनों नए राज्यों वाले प्रस्तावित जिलों में नहीं आता हूं। मेरा गृह जनपद फर्रुखाबाद है। यहां के बारे में एक कहावत है- खुल्ला खेल फरक्खावादी-। इस वजह से ही मैं यह लिख भी रहा हूं। <br />बहन जी से मैं जानना यह चाहता हूं कि मेरा जिला अब किस प्रदेश में रहेगा। तीन नए राज्यों में तो है नहीं। क्या इसका मतलब यह है कि उत्तर प्रदेश के चार टुकड़े होंगे। बहन जी, लगे हाथ कृपया यह भी बता दें कि क्या आपकी उत्तर प्रदेश का नाम भी तो बदलने की योजना नहीं है। इस प्रदेश की जनता ने आपको चार बार सीएम बनाया है, तो आपको इसे चार टुकड़ों में बांटने का हक है। शायद आप भूल गईं कि बुंदेलखंड की तरह से यूपी में बरेली मंडल वाले इलाके को रुहेलखंड भी कहा जाता है। यहां कोई माई का लाल पैदा नहीं हुआ कि वह अलग राज्य की मांग उठाता। आपको इसीलिए याद भी नहीं रहा होगा। चलो छोड़िए। आप विधानसभा में इसके लिए भी प्रस्ताव पारित करवा देना। वहां तो आपका बहुमत है। जब तक आप यह प्रस्ताव लाएं, तब तक शायद विधान परिषद में भी आपकी सीटें बढ़ जाएंगी। सारी विघ्न-बाधाएं खत्म हो जाएंगी। हां, आप दूरंदेशी हैं, सो इन राज्यों की नई राजधानियों का जिक्र करना मत भूलिएगा। लखनऊ- जिसके बारे में कहा जाता था कि लखनऊ हम पर फिदा, हम फिदा ए-लखनऊ। अब कहीं का रहेगा या नहीं। यहां की भूलभुलैया, इमामवाड़े की कौन सुध लेगा। विधानसभा भवन में तो आप कुछ वे मूर्तियां लगवा देना, जो अंबेडकर पार्क में लगने से रह गई हों। इन प्रतिमाओं को लखनऊ आने वाला, रहने वाला हर आदमी जरूर देखेगा, क्यों ये शहर के बीचोंबीच है। गोमती नगर जाने वाले सभी रास्ते इधर से ही जाते हैं। लेकिन आपको सलाह देने के चक्कर में एक बात तो भूल ही गया कि बुंदेलखंड के लिए आपने मप्र के भइया सीएम शिवराज सिंह चौहान से बात कर ली है या नहीं। मैं समझता हूं पूर्वांचल में आपने कुछ बिहार के भी जिले शामिल किए हैं, तो बिहारी बाबू नीतीश कुमार से आपकी बात हो ही गई होगी। <br />चलिए अब आखिरी, लेकिन महत्वपूर्ण बात करते हैं। अभी आपकी करीब ढाई साल की सरकार (मंशा ठीक समझते हुए इसे कार्यकाल समझा जाए)बची है। आपके पास बहुमत है। मान लीजिए, केंद्र सरकार ने आपसे पंगा नहीं लिया (लेगी भी नहीं। आप उसे समर्थन जो दे रही हैं। हालांकि मुलायम सिंह के साथ केंद्र का प्यार उतना नहीं है ), तो नए राज्य बन जाएंगे। दो में थोड़ी दिक्कत हो सकती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश (आपने हरित प्रदेश का प्रस्ताव कैसे कर दिया, समझ से परे है। यह तो रालोद के सब कुछ और आपको पानी पी-पीकर कोसने वाले चौधरी अजित सिंह का मुद्दा रहा है। ब्रज प्रदेश की मांग बहुत पुरानी है। आप इसे उठाकर (चुरा नहीं कहा मैंने)फिर गरमा सकती थीं। इससे सर्वजन की सरकार का आधार और मजबूत हो सकता था। इससे मथुरा और अलीगढ़ इलाकों में लोग राधे-राधे की जगह आपके जयकारे लगा सकते थे। अभी वक्त है। इस पर जरूर सोचिएगा। <br />एक बात और। यह 80 लोकसभा सीटों और 403 विधानसभा सीटों वाले उप्र (आपकी मानी गई तो फिलहाल)के विभाजन के बाद आप कहां विराजमान होंगी। विस में मौजूदा संख्या बल के हिसाब से तो चारों राज्यो में आपकी सरकार होगी। अगर आप लखनऊ में ही रहकर जनसेवा करना चाहती हैं,तो आपके कौन से विश्वस्त दूसरे राज्यों में नीला झंडा फहराएंगे। यह गोपनीय बात है, लेकिन पब्लिक जानना चाहती है। क्या बांदा वाले मंत्री जी बुंदेलखंड जाएंगे। अभी-अभी जीत कर फिर लाल बत्ती पाने वाले क्या पूर्वांचल संभालेंगे। पश्चिमी उप्र तो आपका दावा मजबूत है। गौतमबुद्ध नगर तो आपका घर है। प्लीज आप जल्दी ये बताइगा। नाराज मत होइए। हम यह बात इसलिए कह रहे हैं कि भरोसा नहीं लोग कब कहने लगें- दिल के टुकड़े-टुकड़े करके मुसकराते चल दिए...। आगे नहीं लिखूंगा। माफी मांगनी पड़ सकती है।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-88256916886590520592009-12-07T00:20:00.000-08:002009-12-07T00:22:02.008-08:00अब अरण्य कांड की बात करो...श्री राम जन्म भूमि-बाबरी मसजिद यानी विवादास्पद ढांचा यानी छह दिसंबर,1992 के अयोध्या कांड पर भाजपा सांसद अरुण शौरी का एक बयान बहुत कुछ कहता है। उनका कहना कि 1990-92 में अयोध्या मसले को लेकर जैसा माहौल (गरमाया नहीं कहा) बना था, वैसा फिर संभव नहीं है। शौरी भाजपा को कटी पतंग भी कह चुके हैं, लेकिन बतौर पत्रकार इन्होंने ही तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहाराव के हवाले से अरे भाई वहां (अयोध्या में) मसजिद है ही कहां शीर्षक से एक एक्सक्लूसिव खबर छापी थी।<br />शौरी के मौजूदा बयान का क्या मतलब निकाला जाए। पार्टी के कार्यकर्ता समझ नहीं पा रहे हैं। खासतौर वे लोग, जो छह दिसंबर को राष्ट्रीय गौरव का दिन मानते रहे हैं। भाजपा में अयोध्या को लेकर लाल कृष्ण आडवाणी से लेकर विहिप के अशोक सिंघल और शिवसेना के बाल ठाकरे तक के जो बयान आ रहे हैं, उनसे लगता है कि इनमें से किसी ने संत तुलसीदास की श्री राम चरित मानस नहीं पढ़ी है। इन्हें नहीं मालूम कि अयोध्या कांड के बाद अरण्य कांड आता है। इसका मतलब है कि भटको, विचरण करो। अर्थात सत्य की तलाश करो। वैसे भाजपा पर यह बात सच बैठ रही है। अयोध्या कांड के (खल)नायक कल्याण सिंह छह दिसंबर, 1992 के बाद हिंदू स्वाभिमान के प्रतीक बन गए थे। तब तक वह आम राय से चलते थे। बाद में वह भटक गए। उनके लिए एक ही राय (बताना जरूरी है क्या)अहम हो गई। सपा से निकाले जाने के बाद तो कल्याण एक जाति के भी गौरव नहीं रह गए लगते हैं। आडवाणी ने भी जिन्ना के मुद्दे पर धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़ना चाहा था, अब कहां हैं। अब लोग उनको हेय पुरुष मानने लगे हैं। <br />भाजपा के साथ लगातार चल रहे घटनाक्रम से लगता है कि भाजपा को अभी किष्कंधा कांड देखना है। भाजपाइयों को सुंदरकांड का पाठ करना होगा। लंका कांड यानी रावण(वक्त के साथ बदलते रहते हैं। आप अनुमान लगाएं और बताएं )का बध भाजपा के लिए अभी बहुत दूर है। सभी को मालूम है कि लंका कांड बगैर राम राज्य की कल्पना साकार नहीं होगी।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-34985283524658197032009-04-07T12:56:00.000-07:002009-04-07T13:14:04.316-07:00जब तोप मुकाबिल हो...<p>चुनाव की चखचख के बीच नामी पत्रकार जरनैल सिंह द्वारा केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम पर जूता फेंकने(जूता उछालना ज्यादा ठीक है) की घटना ने काफी कुछ कह दिया है। इस पर अभी बहस और चर्चाओं का सिलसिला चलेगा। मामला आखिरकार पत्रकारों से जुड़ा है। मैं जल्दी में अपनी प्रतिक्रिया के लिए शब्द ही नहीं तलाश पाया। चिंतन-मंथन के बाद मैंने कुछ इस तरह सोचा हैः </p><p>1. जूतों का व्याकरणीकरण और मुहावरीकरण यों ही नहीं हुआ। जब कोई कहता था कि जूतों में दाल बंट रही है तो कुछ भी समझ में नहीं आता था। फिर सुना कि मियां की जूती मियां की चांद भी मुहाबरा है। इसको निजी क्षेत्र में काम करने वाले जब-तब महसूस करते हैं। कई बार आदमी अपने झूठ और गलतियां छिपाने के लिए कह देता है कि आपका जूता मेरा सिर। </p><p>2 जूतों का बाजारीकरण तब हुआ था,जब मॉडल मिलिंद सोमण और मधु सप्रे ने एक जूते का विज्ञापन किया था। इसको लेकर पैदा हुए विवाद ने जूते की कदर बढ़ा दी। नहीं तो मेरे स्वर्गीय बाबा उजागर लाल मिश्रा ने एक बार उनके मात्र 60 रुपये के जूते लाने पर मेरे पिताजी को ताना मारा था कि 60 रुपये का जूता हो या छह रुपये का, पहना तो पैर में ही जाना है। शायद वह अपनी यूनाइटेड किंगडम निर्मित 60 रुपये की लाइसेंसी बंदूक की कीमत आंक रहे थे। </p><p>3। यों नेता आपस में खूब जूतम-पैजार करते ही रहते हैं। लेकिन उप्र की मुख्यमंत्री मायावती की पार्टी बसपा की ओर से जूतों का राजनीतिकरण कर काफी इज्जत बख्शी गई। उनके कार्यकर्ताओं ने नारा दिया था- तिलक तराजू और तलवार- इनको मारो जूते चार। हालांकि सर्वजन की पार्टी बनने की प्रक्रिया में मायावती ने इससे लगातार इनकार करती हैं। वह नेता कुछ भी कह सकती है। किसी भी बात से मना कर सकती हैं। तमाम नेता ऐसा करते रहे हैं। अब चुनाव हैं, रोज करेंगे।</p><p>4। जूतों का महत्व मुझे पत्रकारिता के शुरूआती दिनों में तब समझ में आ गया था, जब मैं लखनऊ विश्विवद्यालय की रिपोर्टिंग करता था। उस समय के एक प्रो-वाइस चांसलर(बाद में वह पूर्वांचल के एक प्रतिषिठत शैक्षिक संस्थान के दो बार कुलपति रहे)और छात्रों के बीच जूते चल गए थे। तब यह अंदर के पन्ने की भी खबर नहीं बनती थी। सो इसे मैंने इसे अपने साप्ताहिक कालम में दुस्साहस कर सर आओ, जूता-जूता खेलें शीर्षक से छाप दिया। फिर क्या था। छात्र आंदोलन पर आमादा हो गए। पीवीसी साहब दबंग छवि के थे। बावजूद इसके उन्होंने अपने एक अति विश्वस्त पूर्व छात्र और मेरे अच्छे मित्र के जरिए मुझसे एतराज जताने को कहा। अंततः पीवीसी साहब से आमने-सामने की मुलाकात हुई और जूता प्रकरण समाप्त हो गया।</p><p>5। जूतों का अंतरराष्ट्रीयकरण 14 दिसंबर, 2008 को तब हुआ, जब इराक के पत्रकार मुंतजर जैदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश जूनियर पर गुस्से का इजहार करने के लिए जूता फेंक कर मारा था। भारत के पत्रकार ने इस मामले में दूसरी पायदान हासिल कर ली। हम भारतीय नंबर एक पर रहने में शायद तौहीन समझते हैं। </p><p> 6। इस संदर्भ में एक शोध किया जाना चाहिए कि जूता फेंकने की घटना में कहीं आर्यो-अनार्यों की उत्पत्ति, उनके ज्ञान और उनकी अनंत यात्रा और इनसे जुड़े मिथकों से तो कोई संबंध नहीं है। </p><p>7। जमाना बदल गया है। जरनैल का जूता बनाने वाली कंपनी को चाहिए कि वह जरनैल को अपना ब्रांड एंबेसडर बना लें। इससे युवा और हाल-फिलहाल पत्रकारिता संस्थानों में पढ़ रहे पत्रकारों को जबरदस्त प्रेरणा मिलेगी। वह इसे चीयर गर्ल जैसे कैरियर के तौर पर अपना सकते हैं। इसकी वजह है कि राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में पत्रकारों की कलम की कीमत कम हो गई है। वह कुछ भी लिखते रहें, शासन-प्रशासन के कान पर जूं नहीं रेंगती। </p><p>8। मौजूदा हालात को ध्यान में रखते हुए केंद्र और राज्य सरकार के मंत्री और नेताओं को ही नहीं, जिलास्तरीय अधिकारियों को ऐस व्यवस्था करनी होगी कि पत्रकार उससे मिलने से पहले अपने जूते बाहर उतार कर आएं। प्रेस कांफ्रेंस में जूते पहन कर आना वर्जित कर दिया जाए। प्रेस कांफ्रेंस स्थल को धर्मस्थल का दर्जा दिया जाए! </p><p>9। लेकिन जरूरी यह भी है कि एसी प्रेस कांफ्रेंस में माननीय मंत्री जी पूरी सत्यनिष्ठा से वक्तव्य दें। देश और समाजा से जुड़े़ सवालों पर गुमराह करने की कोशिश न की जाए। नेता इन आयोजनों का सांप्रदायिक उन्माद फैलाने, भ्रष्टाचारियों का बचाव करने और विरोधियों पर अनर्गल आरोप लगाने के लिए इस्तेमाल न करें। </p><div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-77959167367689994032009-02-25T00:21:00.000-08:002009-02-25T00:22:55.707-08:00जय हो, कुख्यात हो गए...एनडीटीवी के रवीश कुमार ने आज के हिन्दुस्तान में ब्लागर योगेश जादौन के ब्लाग बीहड़ के बारे में विस्तार से चर्चा की है। नहीं जानते जादौन साहब को। अरे वही, जो आजकल अमर उजाला आगरा में हैं। अपने ब्लाग पर वह छक्के लगाने से पहले नामी-गिरामी अखबारों के साथ जुड़े रहकर सिक्का जमा चुके हैं। डकैत-बदमाशों के बारे में लिखते-लिखते शरीफ जादौन साहब भी कुख्यात हो गए हैं। कहते हैं न- बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा। मुझे तो ब्लाग का ककहरा जादौन साहब ने ही सिखाया है। आप उन्हें बधाई देने से पहले उनके ब्लाग का एक चक्कर लगा लीजिए। फिर रवीश जी का आलेख पढ़िए आज के दैनिक हिन्दुस्तान में।<br />लगे हाथ मेरी मिट्टी के तेल के कारोबार से संबंधित चंद लाइनों पर भी गौर फरमा लें- अगर न होता मिट्टी के तेल का कारोबार। कितने लोग मिट्टी में मिल गए होते। मिट्टी के तेल के दाम मिट्टी से भी ज्यादा हैं। अधिकारी इन्हीं दामों का फायदा उठाते हैं। देश भर में डीलर बनाते हैं। बीपीएल कार्ड धारकों की यह मजबूरी है। वहां इससे ही रोटी बनना जरुरी है। इसकी एक और उपयोगिता है। पेट्रोल से इसकी प्रतियोगिता है। गरीब या अमीर महिला जब जान देती है या उसको जलाया जाता है। जलने-जलाने वाले मितव्ययी हो जाते हैं। वे पेट्रोल नहीं,केरोसिन आयल ही आजमाते हैं।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-66141389559952330392009-02-11T00:44:00.000-08:002009-02-11T00:46:58.979-08:00कभी-कभी मेरे दिल में...अपने अध्ययनकाल में मैंने डॉ. श्याम सिंह शशि की एक कविता पढ़ी थी। पूरी कविता तो याद नहीं, लेकिन चार लाइनें- परिचित हुआ, किसी का ना रहा। काश, अपरिचित ही रहता मैं। मन में आज भी मौजूद हैं। बाद में कई बार सोचा कि एक किताब लिखूंगा, जिसमें कविताएं भी होंगी। आज तक तो लिखने का ही मुहूर्त नहीं निकल पाया है। आगे देखते हैं, क्या होता है। ज्योतिषियों की माने तो मुझे कई किताबें लिखनी हैं। <br />तो बात ब्लाग शुरू करने के बाद की। मैं जब भी कोई ब्लाग पढ़ता हूं, तो उसके लेखक/ब्लागर के प्रोफाइल के बारे में जानने की इच्छा स्वाभाविक रूप से जागती है। मेरे ब्लाग को पढ़ने वालों ने भी मेरे बारे में जानना चाहा। हिट्स इसे साबित करती हैं। मैं उसमें क्या लिखूं। दूसरों के लिए जो आम है, वह हमारे लिए खास है। खुला खेल फरुक्खाबादी की तर्ज पर मैं अपने बारे में बताना चाहूंगा। ऐसा सच सामान्य है। और भी लोगों का होगा। बहरहाल, पद्य की शक्ल में एक बानगी देखिएः <br />माता-पिता ने जीवन भर कष्ट सहे<br />इसीलिए हम उनके साथ कभी नहीं रहे<br />पढ़ाई बढ़ती गई<br />जमीन बिकती गई<br />जमाने से टकराने को कई बार अड़े<br />गिरे-पड़े, हो गए अपने पैरों पर खड़े<br />एक दिन नौकरी लग गई<br />पड़ोसियों में भी आस जग गई<br />उन्होंने जब पूछा- पता और ठिकाना<br />मैंने बना दिया कोई न कोई बहाना<br />एक दिन वे बिना बताए आ गए<br />कुछ दिन रुके और सारा राशन खा गए<br />मैं उनके काम में कोई मदद नहीं कर सका<br />उन पर कोई अहसान नहीं धर सका<br />वापस लौट उन्होंने सारी पोल खोल दी<br />पूरे खानदान की हैसियत तौल दी<br />मां-बाप को बहुत बुरा लगा<br />मैं सिद्धांतवादी, मुझे बेसुरा लगा<br />फिर भी कुछ नहीं कर पाया<br />झट से कोने में मुंह छिपाया<br />अपनी लाचारी पर रोया बार-बार<br />क्यों नहीं कर पाया उपकार<br />यह तो अतीत था। भविष्य की कल्पना पर ध्यान दें। अनुमान लगाएं कि ये काम कौन सा हैः<br />आज देखता हूं कि काम कराने वाला ही कर्मठ होता है<br />ऐसे हर आदमी का एक मठ होता है<br />मठ में दिखावा होता है<br />उसमें चढ़ावा होता है<br />जो लेकर आता है, खोता है<br />खाली हाथ वाला रोता है<br />देखते-देखते मैं भी हो गया हूं दयावान<br />जानवर जैसे इनसानों का भगवान<br />अब हजारों आते हैं<br />मैं-मेरे लोग काम कराते हैं<br />छोटी-मोटी कई बीमारियां हो गई हैं<br />बीवी-बेटा और बच्चियां कहीं खो गई हैं<br />अपने बजाय किसी और की स्थापना में चापलूसी लगेगी<br />अच्छी बात यह है कि कइयों में बड़ी उम्मीद जगेगी<br />अब आपको अपने वर्तमान के बारे में बताते हैंः<br />व्यथित है हिमालय धरती में है वेदना<br />चिंताएं हमारी बढ़ गई, नहीं बढ़ी चेतना।<br />योग हमने छोड़ा, पहली पसंद हुआ क्रिकेट खेलना<br />फिर भी सीखा नहीं हार को देखना-झेलना।<br />राजनीति सबसे बुरी, आसानी से कह दिया<br />पर छोड़ा नहीं हमने नेताओं के आगे लेटना।<br />स्वार्थ में हमने दूसरों को गले लगा लिया<br />शर्म गायब, जब शुरू किया अपनों के जख्म कुरेदना।<br />रावण के सारे तीर हमने चुरा लिए <br />अपुन का इरादा है राम की मर्यादा को भेदना।<br />लोगों में छबि इतनी हो गई है अच्छी-खराब <br />छोटों को नसीहत देते हैं-सच बोलना है मना।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-80463232894583677362009-02-03T10:19:00.000-08:002009-02-03T10:23:33.300-08:00मन जब अस्थिर होता है...करीब एक महीने से ब्लाग से रिश्ता थोड़ा कमजोर पड़ गया था। वजह कुछ खास नहीं है। हां, इस दौरान मैंने अपनी कवितानुमा चंद लाइनें तलाश लीं। हालांकि कुछ जगह मैंने पढ़ रखा है कि जब आदमी कुछ और नहीं कर पाता है, तो कविता-कहानी लिखने लगता है। मैं इससे कभी सहमत नहीं हो पाया। बावजूद इसके इस मुद्दे पर बहस में मेरी रुचि नहीं है। मेरी मान्यता है कि सोचने और उसको लिखने से ज्यादा कठिन कोई काम नहीं है।<br />बहरहाल, लाइनों पर गौर फरमाएं-<br />अनवरत आते हैं नए विचार<br />करते हैं आपस में व्यभिचार<br />जब नहीं हो पाते हैं सहमत<br />किसी पर भी मढ़ते हैं तोहमत।<br />इससे मिलती-जुलती लाइनें कुछ इस तरह हैं-<br />अपने मन का सोचा दूरंदेशी लगता है<br />हर समस्या के निदान पर संदेशी लगता है<br />लेकिन अपना कुछ खोने का डर सताता है<br />यही मन झटके से बचने की राह बताता है<br />अब बात करते हैं उन शब्दों की जिनको कई लोग अपशब्द नहीं मानते। उनके चाटुकार कहते हैं कि यह तो उनके प्यार का स्टाइल है। संभवतः इसका कारण है-<br /> कुछ सुनने को नहीं हम तैयार<br />हमे पशुओं से है बेहद प्यार<br />वजह, दिन-रात, चौबीस घंटे<br />हम खुद बार-बार वही होते हैं यार<br />तो बात गधे (कामकाजी और दुनियादरी वाले लोगों के बीच अति कामन शब्द) से शुरू करते हैं-<br />घर-बाहर जो हर जगह निष्ठा से बंधा होता है<br />बड़ों से छोटों तक की नजरों में गधा होता है<br />जब तक उसने कुछ को कहीं का नहीं छोड़ा<br />जमाना उसे नहीं मानता उसे घोड़ा<br />क्या करें, हमारे जैसे कई लोग एक से ही सधे हैं<br />इसलिए हम फिक्र नहीं करते कि हम गधे हैं<br />सुअर के बारे में मेरा मानना है-<br />हम मुंह जरूर मारते हैं इधर-उधर<br />बावजूद इसके नहीं पालते सुअर<br />क्योंकि सुअर का बच्चा प्यारा होता है<br />बड़ा सुअर तो पक्का आवारा होता है<br />अगर इन लाइनों पर लालित्य और साहित्य से वंचित मेरे जैसे व्यक्ति के बारे में आलोचना, प्रशंसा या फिर रस्मी टिप्पणियां आती हैं, तो अगली बार कुछ और पशुओं की बात करेंगे। लेकिन याद रखिए-जानवर घर-जंगल में रहते हैं, उनके क्या कहने<br />आदमियत खो गई, ताने पड़ रहे उसको सहने<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-60799867921681779502009-01-07T23:38:00.000-08:002009-01-08T00:05:14.575-08:00अब तो सबक ले लो...मंदी के दौर में सत्यम कंप्यूटर्स का असत्य सबके सामने है। सामने है औसत भारतीय नागरिक की वह इच्छा, जिसमें वह काम किए बगैर अधिकतम पैसा पाने की इच्छा पाल लेता है। संतोषी सदा सुखी की सीख लुप्तप्रायः हो गई है। लॉटरी के खेल ने हमारी कर्मठता और मेहनतकश होने की भावना को चिंदी-चिंदी कर दिया है। लॉटरी से लाखों-करोड़ों घर तबाह हुए, तो इस पर पाबंदी लग गई। ये मामला थोड़ा कानूनी था। सट्टे पर आज भी कोई रोक नहीं है। लोग सट्टा खेल रहे हैं और दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की के चक्कर में हैसियत के हिसाब से गंवा रहे हैं। लाटरी बंद होते-होते और आर्थिक उदारीकरण शुरू होने पर हमारे देश में खुली अर्थव्यवस्था लागू हो गई। नब्बे के दशक में लोगों ने अपनी गाढ़ी कमाई निजी फाइनेंस कंपनियों में लगा दी। वहां बैंकों से ज्यादा ब्याज के सब्जबाग दिखाए गए थे। तब आदमी बैंकों-पोस्ट आफिस में पैसा जमा करना अपनी तौहीन समझने लगा था। उसे उसके मोहल्ले की कोई न कोई फाइनेंस कंपनी अपने झांसे में ले ही लेती थी। जब फाइनेंस कंपनियों का जाल-बट्टा सामने आया, तब उसे कुछ वक्त के लिए बैंक अच्छे लगने लगे। लेकिन कहते हैं कि जानकारी हुए बगैर कोई काम करना ज्यादा घातक साबित होता है। सो कुछ ही समय बाद मुफ्त-ए-माल, दिल-ए-बेरहम का अनुसरण करते हुए अधिकांश लोग शेयर बाजार में अपना पैसा लगाने लगे। दावे के साथ कहा जा सकता है कि इनमें से तमाम लोगों को सेंसेक्स, बीएसई, निफ्टी के बारे में भी पता नहीं है। फ्रेंचाइजी, एजेंट ने उसे ग्राहक से इनवेस्टर होने के रुतबे के बारे में बता दिया। उसे बताया गया कि वह रिलायंस के शेयर खरीदकर अंबानी हो सकता है। यह नहीं समझाया गया कि धीरूभाई अंबानी ने रिलांयस को खड़ा करने के लिए क्या-क्या पापड़ बेले थे। उसे टाटा और बिड़ला की कतार में खडें होने के सपने दिखाए गए, पर यह नहीं बताया गया कि इन कपनियों के ही नहीं, अन्य कंपनियों के शेयर खरीदने से पहले उसकी माली हालत जानने के लिए उसकी भी कोई जिम्मेदारी बनती है। वह तो रातोंरात लखपति बनना चाहता था। हर्षद मेहता, केतन पारिख और तेलगी को इन्हीं कमजोरियों का लाभ मिला। हालांकि इनं कुख्यात नामवरों ने भारत के कारपोरेट और बैंकिंग सेक्टर की खामियों को भी सामने ला दिया। पर क्या फर्क पड़ता है उन निवेशकों पर, जिनकी बरसों-बरस की कमाई डूब गई। सत्यम के खुलासे से साबित हो गया कि निवेशक भेड़चाल में शामिल न हों। उसकी ज्यादा लाभ पाने की इच्छा अपनी जगह है। इससे भी ज्यादा आवश्यक है कि उसे किसी अपरिचित के बहकावे में आकंर जल्दबाजी में निवेश करने से बचना चाहिए। निवेशकों को मेहनत की कमाई को कहीं, खासतौर से शेयर बाजार में लगाने से पहले याद रखना चाहिए कि एक चेहरे में कई चेहरे छिपे हैं और चेहरों में छिपा है आदमी।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-31949363236912577612008-12-28T01:58:00.000-08:002008-12-28T02:11:33.070-08:00युद्ध तो नहीं होगा, पर...जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजों ने पाकिस्तान को एक और गम दे दिया है। मुंबई पर आतंकी हमले के कारण पहले से दुनिया के निशाने पर आ चुके पाकिस्तान के रियासत के आवाम ने 61 फीसदी से अधिक मतदान कर भारतीय लोकतंत्र के प्रति अपनी आस्था से अवगत करा दिया है। भारत ने बराक ओबामा की ओर से 20 जनवरी तक संयम बरतने का बयान दिलाकर महत्वपूर्ण कूटनीतिक बढ़त हासिल कर ली है। चीन का भी दबाव बढ़ा है। पाकिस्तान कितना भी हौव्वा खड़ा करे। यह तय है कि युद्ध नहीं होगा। जम्मू कश्मीर के चुनाव नतीजों ने दक्षिण एशिया में शांति बनाए रखने की कोशिश में लगी ताकतो को और मजबूत किया है। जम्मू कश्मीर में चुनाव में बिघ्न-बाधा डालने के लिए पाकिस्तान ने सभी तरह की साजिश की। सीमा पार से घुसपैठ की कोशिश कराई गई। नेपाल और बांग्लादेश के जरिए आए आतंकी जम्मू कश्मीर भी पहुंच गए। मुंबई पर हमले के समय भी वहां चुनावी प्रक्रिया चल रही थी। पाकिस्तान भारत के लोगों में लोकतंत्र के प्रति विश्वास को तोड़ना चाहता था। नापाक इरादों को कामयाबी नहीं ही मिलती है।<br />बहरहाल, अब महत्वपूर्ण बात यह कि केंद्र सरकार और कांग्रेस को वहां बनने वाली सरकार को लेकर पूरी गंभीरता बरतनी होगी। जरा सी चूक पूरे देश के लिए भारी पड़ेगी। वजह यह है कि वर्ष, 2002 के विधानसभा चुनाव के बाद पहली बार वहां के आम लोगों का भरोसा बढ़ा था। इसका श्रेय उस समय के चुनाव आयोग के अधिकारियों को तो जाता ही है। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की इस बड़े और शांतिपूर्ण आयोजन में शानदार भूमिका रही थी। इससे पहले वहां के लोग मानते-कहते थे कि चुनाव तो औपचारिकता के लिए कराए जाते हैं। मुख्यमंत्री कौन होगा (ज्यादातर डॉ. फारूक अब्दुल्ला)दिल्ली (केंद्र सकार) पहले ही तय कर लेती है। वाजपेयी साहब ने सब कुछ वहां की जनता पर ही छोड़ दिया था। त्रिशंकु विधानसभा और मिलीजुली सरकार बनी। जम्मू कश्मीर के तीनों खित्तों जम्मू, कश्मीर और लद्दाख का समुचित विकास हुआ। अमरनाथ श्राइन बोर्ड भूमि विवाद के कारण भाजपा को चुनावी लाभ हो गया है, तो कांग्रेस को जम्मू के मामलों में फैसला लेने में देरी का शिकार होना पड़ा। एक अहम फैसले पर स्टैंड न लेने से उसके द्वारा दो साल में कराए गए विकास कार्य पीछे हो गए। पीडीपी को घाटी में लाभ अपने स्टैंड के कारण ही मिला। चुनाव आयोग ने अपना काम बहुत अच्छे से पूरा किया है। अब कांग्रेस को सोचना होगा कि वह किसकी सरकार बनने देगी। नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी को यह मानना ही होगा कि लोगों ने उनको पहले जैसा ही मैनडेट देकर उनके और उनकी पाटिर्यों के बारे में अपनी राय साफ कर दी है। जम्मू कश्मीर की जनता का जनादेश अलगाववाद और आतंकवाद के खिलाफ है। पिछली सरकार के कार्यकाल में उसने विकास की बयार देखी है। आतंकवाद से लड़ने का उसका हौसला भी बढ़ा है। उ़डी-मुजफ्फराबाद और पुंछ-रावलाकोट सड़क मार्ग खुलने के बाद पार से यहां आए रिश्तेदारों से बातचीत के बाद तमाम लोगों लोगों ने आजादी के नारे से तौबा कर ली है।<br />रियासत के आवाम की इन भावनाओँ को निरादर-अनदेखी करना कांग्रेस के लिए एक और कलंक का कारण बनेगा। सात दशक पुरानी कश्मीर समस्या को लेकर तमाम आरोप झेल रही कांग्रेस के लिए एक आरोप को कम करने का समय है। पिछली बार चुनाव के बाद राष्ट्र हित में पीडीपी की सरकार बनवाने वालों में प्रधानमंत्री डॉ।मनमोहन सिंह की सबसे अहम भूमिका थी। अब फिर उनकी ही बारी है।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-54489004750182487352008-12-14T10:26:00.000-08:002008-12-14T10:35:26.605-08:00खबरें अभी और भी हैं...<p>देखा आपने। आतंकवाद पर संसद में एकजुटता की हवा अगले ही दिन निकल गई। लोकसभा चुनाव में आतंकवाद को मुद्दा बनाने की सोचने वाले हमारे तमाम मंत्री और नेता 13 दिसंबर, 2001 को संसद पर हमले के दौरान शहादत देने वाले सुरक्षाकर्मियों को याद करने और उनके परिजनों को सांत्वना देने के लिए समय नहीं निकल पाए। धीरे-धीरे आम लोगों का गुस्सा भी कम होता जा रहा है। आतंकवाद और पाकिस्तान के खिलाफ की जा रही बातें भी हल्की पड़ गई हैं। यह अलग बात है कि खुद और अपने रिश्तेदारों को लेकर सामान्य से आदमी की भी चिंता ज्यादा बढ़ गई है। यह आम आदमी महंगाई से लड़ने के लिए तो अपने खर्च में कटौती कर सकता है, पर आतंकवादियों और आत्मघाती दस्तों का मुकाबला कैसे कर सकता हैं। </p><p>उसे अपनी और समस्याओं से ही जूझने का वक्त नहीं है। वह उनसे ही हिम्मत हार चुका है। उसे उदारीकरण और वैश्वीकरण की हवा ले डूबी है। उसने कुछ दिन इस अनायास नहीं दिए। उन्हें लगा कि अगर वे राष्ट्रीय शोक की इस घड़ी में शामिल न हुए तो वे एक नागरिक की जिम्मेदारी निभाने से चूक जाएंगे। फिर टीवी ने भी तो इतना मुंबई दिखाया कि उसे और कुछ नहीं सूझ रहा था। </p><p>अब उसे फिर वहीं रोजमर्रा की दिक्कतें नजर आने लगी हैं। सो इस तबके में से ज्यादातर का मूड चुनावी हो रहा है। अब उसे लोकसभा चुनाव नजर आएगा। अपनी निष्ठा वाली पार्टी लुभाएगी। उसके लिए वह तर्क-वितर्क और कुतर्क करेगा। झगड़े-फसाद करेगा। महंगाई के बारे में तरह-तरह के दावे किए जाएंगे। थोड़े समझदार लोगों के लिए आंकड़ों से खेलना और उनसे छेड़छाड़ बहुत आसान होती है। जो चिंतन करेगा उसके लिए मंदी कम और इसके चलते फैलाया जा रहा खौफ काबिले जिक्र होगा। यह सच है कि मंदी के इस दौर में हजारों करोड़ टर्नओवर वाली कंपनियों के अधिकारी और कर्मचारी ज्यादा परेशान हैं। उन्हें अपनी सुख-सुविधाएं छिनने की चिता सता रही है। जमीन से अलग हट जाने और जमीन बेच देने वालों का ह्श्र यही होता है। तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बड़े पद और पैकेज पर काम करने वाले लोग औसत बुदि्धमान लोग ही हैं, लेकिन रुतबा बढ़ने पर उन्होंने जमीन पर चलना तो दूर जमीन पर चलना तक छोड़ दिया था। अब उन्हें जमीन दिखेगी कि नहीं। देखेंगे। </p><p>अगर मंदी की मार कुछ दिन और चली, तो यकीन मानिए कि खुदकुशी करने वाले अधेड़ और बुजुर्गों की संख्या बढ़ जाएगी। बेरोजगार नौजवानों में नशे की लत और बढ़ जाएगी। इनमें कोई भी आतंकी हो सकता है। आतंकवाद को रोकने के साथ-साथ संरकार को इन लोगो को आतंकी बनने से रोकना भी चुनौती होगी। वैसे, भारत में चुनौती स्वीकार करने और देने को लेकर खास गंभीरता नहीं दिखाई जाती। संभव है कि चुनौतियों के चक्रव्यूह में हम सब कहीं एक बार फिर न घिर जाएं। इसमें फायदा होगा, जिनका-सबते नीके मूड़, जिन्हैं न व्यापै जगत गति- में यकीन है। हमें इंतजार है उनका, जो कहते हैं-ऐ वतन की रेत मुझे ऐड़ियां तो रगड़ने दे मुझे यकीं है पानी यहीं से निकलेगा।<br /></p><div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-72467647886383860362008-12-07T00:09:00.000-08:002008-12-07T00:12:00.198-08:00थोड़ा पालिटिकल हो जाए...मुंबई पर हमलों के 11वें दिन भारत की कूटनीति सफल हो गई। 20 दिसंबर को नौकरी जाने से पहले जाते-जाते अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडालिजा राइस जाते-जाते हम पर एक और अहसान कर गईं। पाकिस्तान मान गया कि मुंबई के धमाकों को उनके आदमियों ने अंजाम दिया है। अब कार्रवाई क्या होगी, यह भारत ही नहीं पूरी दुनिया देखेगी। इधर, 26 नवंबर के बाद से भारत के लोगों के दुख, क्षोभ और गुस्से के कारण ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री को जाना पड़ा। इन 11-12 दिनों में मुंबई के धमाको के साथ पाकिस्तान के नापाक इरादों और पीओके में चल रहे ट्रेनिंग कैंपों पर हमला बोलने को लेकर कमोवेश पूरे देश की एक राय रही। देशवासियों को इस हमले ने इस कदर झकझोर दिया कि कम होती महंगाई की दर उन्हें खुश नहीं कर पाई। पेट्रोल-डीजल के दाम में कमी किए जाने पर उनकी प्रतिक्रिया बहुत नरम रही। सदभावना के विस्तार के कारण छह दिसंबर भी तनाव मुक्त रहा। लेकिन कहते हैं कि चलने का नाम जिंदगी है। जिंदगी चल भी रही है।<br />मुंबई की धमक आठ दिसंबर से कम हो जाएगी। जिन चार राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए हैं। उनके नतीजे आएंगे। मध्य प्रेदश और छ्त्तीसगढ़ में भाजपा को वापसी की उम्मीद है। दिल्ली कांग्रेस के हाथ में रह सकती है। राजस्थान में ऊंट किसी करवट बैठ सकता है। नेता फिर बोलने लगेंगे। उनसे बुलवाया जाएगा। कांग्रेस और भाजपा के नेताओं से पूछा जाएगा कि बसपा-सपा ने उनका क्या नुकसान किया जाएगा। वार्ड स्तर का नेता भी हार-जीत के लिए तर्क गढ़े़ हुए बैठा है। प्रवक्ता सैलून में जाकर टीवी चैनलों पर आने की तैयारी कर चुके हैं। नए सूट (शिवराज पाटिल का प्रचार ज्यादा हो गया था ) सिलाए जा चुके हैं। मानकर चलिए कि मुंबई के धमाकों के बाद बैकफुट पर आए नेता सोमवार से धमाके करने को तैयार हैं। कोई किसी की टोपी (हालांकि कोई नेता पहनता नहीं है। कपड़े भी फाड़े जाते हैं) उछालेंगे। जवाब में दूसरा उसके नेता के व्य़क्तित्व और कृतित्व पर सवाल खड़े कर देगा। कल से केंद्र की नई सरकार बनने लगेगी। नए गठबंधन बनने-बिगड़ने लगेंगे। सांप्रदायिक शक्तियों से मुकाबले की आड़ में सौदेबीजी शुरू हो जाएगी। मौकापरस्त नेता अपने-अपने मैदान छोड़ने का ऐलान करने लगेंगे। फ्रेंडली फाइट से नए समीकरण बनाए जाएंगे। यूपीए ने पेट्रोलियम पदार्थों के दाम घटाकर इसकी शुरूआत कर दी है। मंदी से निपटने के लिए रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट कम किए जाने के बाद कर्ज की दरें और सस्ती कर दी जाएंगी। संदेश होगा। ऋण लो और धंधा शुरू कर दो। चार साल बाद हो सकता है कि इसे माफ कर दिया जाए। कागजों पर महंगाई मार्च-अप्रैल तक नहीं बढ़ने दी जाएगी। मुंबई ने केंद्र का जनवरी-फरवरी में लोकसभा चुनाव का प्लान फेल कर दिया है। नहीं तो अगले बजट में कुछ और नए टैक्स लगना तय था।<br />फिर क्या हमें मुंबई के धमाके याद रह पाएंगे। खूब सोचिए। जवाब नहीं में आएगा। हम देश को आजादी दिलाने वालों को भी तो भूल ही गए हैं। रस्म अदायगी जरूर करते रहते हैं। क्या करेंगे। हर आदमी जो पालिटिकल हो गया है। हो सकता है कि नेतागण इसे चुनावी मुद्दा बनाने से बाज न आएँ।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-15373646686060383212008-12-03T22:10:00.000-08:002008-12-03T22:11:48.481-08:00शुक्रिया, अमर उजाला का ब्लाग कोना पढ़ें...वास्तव में उत्साहित हूं। ब्लागिंग के शुरूआती दौर में ही नेता माने ताने शीर्षक से लिखी मेरी पोस्ट के प्रमुख अंशों को अमर उजाला ने 4 दिसंबर के ब्लाग कोना में जगह दी है। इस क्षेत्र में चूंकि नया हूं। न तो ब्लागिंग के बारे में ज्यादा जानता हूं और न ही ब्लाग पर धड़ाधड़ और तार्किक ढंग से लिखने वाले लेखकों को। ऐसे में अमर उजाला के प्रोत्साहन ने हौसला और बढ़ा दिया है। फिर से लगने लगा है कि सम-सामयिक मुद्दों पर विचारों को विस्तार दिया जाए। विचार सांझे किए जाएं। न जाने कब कौन सा विचार बड़े फैसले का कारण बन जाए। एक बार फिर अमर उजाला का आभार। साथ ही विनती कि आज का अमर उजाला जरूर पढ़ें।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-65844676882654114132008-12-03T01:01:00.000-08:002008-12-03T01:02:59.902-08:00नेता माने ताने...मुंबई पर आतंकी हमले के बाद हमने नेताओं का एक नया चेहरा देख लिया है। चाहे वह महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री आरआर पाटिल हों या फिर राष्ट्रवादी सोच वाली भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी या फिर किसी भी तरह की आस्था को न मानने वाले केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतनंदन हों। सबने यह बता दिया कि उन्हें केवल और केवल राजनीति से मतलब है। जनता की भावनाओं से, देश के मर िमटने वाले रणबाकुरों के बारे में उनकी सोच अपने दल के अदने से कार्यकर्ता से भी कम है। उत्तर प्रदेश के सहकारिता मंत्री रहे पूर्व सांसद राम प्रकाश त्रिपाठी करीब 20 साल पहले मैंने निजी तौर पर एक सवाल पूछा था कि नेता माने क्या होता है। सैद्धांतिक तौर पर उन्होंने नेता का मतलब एक बडे़ वर्ग की समस्याओं के लिए किसी भी परिस्थिति में नेतृत्व करने का साहस रखने वाला व्यक्ति बताया था। व्यवहारिक तौर उन्होंने सीधे कहा था कि नेता का अर्थ इस शब्द का उलटा होता है। यानी जो अपनी बात को जितना ज्यादा ताने, वह उतना ही बड़ा नेता होता है।<br />सच है। देश इन तानने वाले नेताओं के मकड़जाल में बरसों-बरस से उलझा हुआ है। उसने नारों की आ़ड़ लेकर जनता को हमेशा मूर्ख बनाया है। नेता जानना ही नहीं चाहता है कि आम जनता की भावनाएं भी होती हैं। अपने आलाकमान को खुश करने के लिए, वोट बटोरने के लिए नेता के मन में जो भी आता है, कह देता है। रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव और समाजवादी पार्टी के महसचिव अमर सिंह भी इसी बिरादरी में आते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने भी एक बार कहा था कि उनका वोटर अखबार नहीं पढ़ता है। बाद में उन्हें पता चल गया था कि पाठक अखबार ही नहीं पढ़ता है, सच्चाई भी समझता है। क्या यह इससे जाहिर नहीं होता कि 1989 के बाद उन्होंने जोड़-तोड़ ही सरकारें बनाई। अब तो टीवी ने लोगों को लाइव घटनाएं दिखाकर छिपाने के लिए कुछ बाकी ही नहीं रखा है। दरअसल, मुंबई की घटनाओं के बाद नेताओं के पास मुंह दिखाने का कोई रास्ता नहीं बचा है। बावजूद इसके टीवी पर अपना खुद का चेहरा दिखाने की ललक और अखबारों में अपने बयान को बड़ा देखने की तड़प उन्हें बिना सोचे-समझे बयान देने के लिए मजबूर कर रही है।<br />ऐसे में लोकतांत्रिक व्यवस्था को बरकरार रखने और इसकी मजबूती के लिए कुछ कदम उठाया जाना जरूरी है। एक- मतदान के दौरान प्रत्याशियों के चुनाव चिह्न के साथ एक कालम यह भी हो कि इनमें से कोई नहीं। इस तरह हम मतदाता को अपनी नापसंद भी व्यक्त करने की आजादी दे सकते हैं। इससे नकारात्मक मतदान बढ़ सकता है। दूसरा- अगर कोई उम्मीदवार 40 फीसदी से कम वोट पाकर जीत जाता है, तो उसका कार्यकाल पांच वर्ष के बजाय दो साल करने का प्रावधान किया जाए। उसको दी जाने वाली सुविधाओं में भी इसी हिसाब से कटौती की जाए। दो साल बाद फिऱ चुनाव कराया जाए। तब तक कम अंतर से जीतने वाले प्रत्य़ाशी के पास अपना अंतर सुधारने का मौका रहेगा। तीन- जनता को जीते हुए उम्मीदवार को वापस बुलाने का अधिकार दिए जाने पर जल्दी ही फैसला आना चाहिए। इसके लिए कई संगठन प्रयासरत भी हैं। कहीं ऐसा न हो जाए कि हाल-फिलहाल जनता जिन नेताओं का विरोध धरना-प्रदशर्न और रैली निकालकर करती है, हिंसक हो जाए। नेताओं को बीच बाजार सरेआम अपमानित किया गया, तो हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर गहरा दाग लग जाएगा।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-16781577036189383642008-11-28T10:35:00.000-08:002008-11-28T11:00:33.847-08:00बच्चों को बताना ही पड़ेगा...जैसे व्यस्त मार्गो पर आए दिन सड़क दुर्घटनाएं होती हैं। आतंकी घटनाएं भी ऐसी ही होने लगी हैं। रेल हादसे जरूर कम हुए है। जब होते हैं, तो दर्जनों लोग काल-कलवित होते हैं। सड़क हादसों की प्रमुख वजह क्या है। अब हर आदमी की हैसियत वाहन खरीदने की है। घर का कोई बढ़ा जब दो पहिया से चार पहिया पर आता है। दो पहिया पर बच्चों की ट्रेनिंग व्हीकल हो जाता है। दुस्साहस दिखाते हुए यही बच्चे अस्पताल पहुच जाते हैं। सड़कों पर दुर्घटनाओं का अनुपात बढ़ गया है। एक बार तो रपट आई थी कि इस तरह से काल के गाल में समाने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। इसको ध्यान में रखते हुए ट्रैफिक और इसके रूल्स-रेगुलेशन को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया गया। बच्चों को इसके बारे में स्कूल-कालेज जाकर भी बताया जाने लगा है। <br />करीब डेढ़ दशक से ओजोन परत में छेद, ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण के बारे में भी बच्चे किसी भी आम नागरिक से ज्यादा जानने लगे हैं। ये जाररूकता बच्चों में इसलिए आ पाई, क्योंकि उन्हें पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने की प्रेरणा पूरे मनोयोग से दी गई। शिक्षकों ने उन्हें पर्यावरण के हर पहलू से से बकायदा परिचित कराया गया। हम भले ही पालीथिन का इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहे हैं, पर हमारे बच्चों को इससे होने वाले नुकसानों के बारे में सब कुछ पता है। प्राइमरी के बाद के विद्यार्थियों को सेक्स एजूकेशन दिए जाने पर थोड़ी-बहुत ना-नुकर के बाद करीब-करीब सहमति बन रही है। <br />ऐसे में जरूरी हो जाता है। टीवी पर मुंबई की लाइव मुठभेड़ और कमांडो कार्रवाई देख रहे नौनिहालों को आतंकवाद पर उसी तरह से बताया जाए, जैसे हम इतिहास को पढ़ाते हैं। बच्चों को बताना होगा कि अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और ब्रिटेन के मेट्रो रेलवे पर हमले किस नापाक मकसद के लिए किए गए थे। उनके लिए यह जानना भी बेहद जरूरी होगा कि 1993 में मुंबई में पहली बार हुए सीरियल बम ब्लास्ट के पीछे हमारी क्या खामियां रही थीं। इन्हें हम आज तक शायद दुरुस्त नहीं कर पाए हैं। 1999 में हमें किन हालात में अजहर मसूद को जम्मू जेल से रिहा कराने के बाद तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने कंधार ले जाकर छोड़ा था। हो सके तो यह भी बताया जाए कि मालेगांव विस्फोट में हिंदू आतंकियों और सेना की क्या भूमिका थी।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-14147537173002136242008-11-28T00:32:00.000-08:002008-11-28T00:36:50.861-08:00कोई रहनुमा नहीं आएगा...लगता है कि मुंबई में आतकियों की हरकत से हम कोई सबक नहीं सीख ऱहे हैं। अमेरिका में 9-11 के बाद और बाद में ब्रिटेन में हमलों के बाद आतंकवाद से निपटने की जैसी इच्छा शक्ति वहां की जनता में दिखाई पड़ी थी, वैसी अपने यहां नहीं दिख रही। 40 घंटे बीतने को हैं, लेकिन सुरक्षा बलों के अलावा सभी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। यह भी कह सकते हैं कि चिंता को जुवां नहीं मिल रही है। ऐसा भी नहीं है कि सभी नेता-अभिनेता शोकग्रस्त हैं, पर सामने आकर देशवासियों से अपील तक करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। आखिर आतंकवाद को राष्ट्रीय स्वाभिमान के साथ क्यों नहीं जोड़ा जा पा रहा है।<br />चाहे वह पाकिस्तानी आतंकवाद हो या और हमारे देश में ही बैठे लोगों द्वारा की जा रही करतूतें हों। आतंकवाद हमारी राजनीति का मुद्दा तो रहा, लेकिन चिंता की मुख्य वजह नहीं बन पाया। उदारीकरण ने हमारी सोच को संकुचित कर दिया है। हमारे लिए समाज और देश के मायने भी बदल गए हैं। राजनीतिज्ञों ने जनता का जितना इस्तेमाल अपने लाभ के लिए किया, जनता उससे कहीं ज्यादा उनका इस्तेमाल करने की सोचने लगी। हालांकि इसमें जनता हार गई, पर उसने कहना शुरू कर दिया कि राजनीति ने देश का बंटाधार कर दिया है। यह कहने वालों की भी कमी नहीं है कि देश को मरे हुए लोग चला रहे हैं।<br />बात सही भी है। याद कीजिए देश का वह दौर, जब उत्तर प्रदेश के सरकारी कार्यालयों, अस्पतालों और रोडवेज की बसों पर एक तरफ लिखा रहता था कि परिश्रम के अलावा और कोई रास्ता नहीं। दूसरी तरफ अनुशासन ही देश के महान बनाता है, संदेश होता था। अब कड़ी मेहनत, पक्का इरादा, दूर दृष्टि जैसे प्रेरणादायी स्लोगन ही खत्म नहीं हो गए। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दे भी अपना महत्व खो चुके हैं। बहुतों को तो यह भी पता नहीं होगा कि ये सब बातें किसने कही थीं। भारीत 21वीं सदी में ले जाने का सपना देखने और दिखाने वाले राजीव गांधी भी असमय काल का शिकार हो गए। बाद में बुनियादी बातें कभी नहीं कहीं गईं। इंडिया शाइनिंग और फील गुड का गुब्बारा फूलने और उड़ने से पहले ही फट गया .<br />क्या माना जाए कि देश को मरे हुए नेता ही चलाते रहे हैँ। आज के नेताओं को मजबूरी के चलते भी कोई नेता नहीं मान पा रहा है। गरीबी, बेरोजगारी के मामले में तो नेता कुछ भी बोलने से शायद इसलिए ही बच रहे हैं। यह हमले नेताओं के प्रति बढ़ते हुई अनास्था का ही नतीजा है।<br />यह भाषण नहीं है। इस समय देश को एकजुटता की जरूरत है। ऐसी ताकत की आश्यकता है, जो दुनिया को बता दे कि आतंकवाद का मुकाबला हम जाति और संप्रदाय में बटे बगैर करेंगे। चूकने पर हम एक बार फिर से सहानुभूति (अंग्रेजी में सिम्पैथी) के पात्र बन जाएंगे। जब हमें आयुर्वेद,एलोपैथी और होम्यैपैथी का इलाज मालूम है, तो सिम्पैथी की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-30009150995460595222008-11-26T23:40:00.000-08:002008-11-26T23:43:09.677-08:00मरने वाले खुशकिस्मत हैं...मुंबई में बुधवार रात हुए आतंकी हमले में मारे गए 100 से ज्यादा लोग खुशकिस्मत हैं। नेता-मंत्री उनके घर आएंगे और कहेंगे कि वह व्यक्ति देश के लिए बलिदान हो गया। प्रशासनिक अधिकारी हमले में मृत परिवारों के परिजनों को तरह-तरह की सांत्वना देंगे। टीवी चैनल बार-बार उनके शव दिखाएंगे। परिवारवालों को रोते-बिलखते हुए दिखाएंगे। मरने वालों में से कई की वीरता और साहस की कहानियां अखबारों में प्रमुखता से छपेंगी। कुछ दिन तक तरह-तरह की अटकलें लगाई जाती रहेंगी। कोई कहेगा कि यह मालेगांव विस्फोट के मामले को ज्यादा तूल देने का नतीजा है, तो यह कहने वाले भी कम नहीं होंगे कि सरकार आतंकवाद के मोरचे पर सबसे ज्यादा कमजोर साबित हुई है।<br />आज मध्यप्रदेश में मतदान हो रहा है। राजस्थान और दिल्ली में मतदान होना है। क्या राजनीतिक लाभ के लिए कोई राजनीतिक दल भी यह काम कर सकता है। बदकिस्मत हैं, वे लोग जिन्हें न तो आतंकियों की मजबूत गोली लगी और न ही पुलिस की गोलियां इनकी जान ले पाईं। इनके दुर्दिन आ गए हैं। घायलों को अपने जख्मों से ज्यादा पुलिस और अन्य विभाग के अफसरों द्वारा पूछे जाने वाले सवालों की चिंता करनी पड़ेगी। वे पूरे मामले में चाहकर भी निर्दोष नहीं रह पाएंगे। अस्पतालों और नर्सिंग होम्स में उनका इलाज न जाने कब ठप पड़ जाएगा, क्योंकि कोई मंत्री और नेता वहां टपकने वाला होगा। उन्हें मंत्री जी और नेताओं के घड़ियाली आंसू देखने पड़ेंगे। झूठे दावे और खुद उसके लिए कोरे आश्वासन बरदाश्त करने पड़ेंगे। उनको और उनके घर वालों को उनका उद्धार करने के सपने दिखाए जाएंगे। इस काम को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनियां गांधी, भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार लाल कृष्ण आडवाणी सभी करेंगे। चुनावी मुद्दा बनाने की बात की जाएगी। दिल्ली में विस्फोट के बाद अपने सूट्स को लेकर चर्चा में रहे गृह मंत्री शिवराज पाटिल शायद फिर दोहरा दें कि पोटा को फिर से नहीं लागू किया जाएगा। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह आतंकी गतिविधियों के लिए तुरंत पाकिस्तान को आड़े हाथ लेते हुए उस पर हमला करने की भी बात करेंगे। वह तब भूल जाएंगे कि उनकी पार्टी के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ आर-पार की लड़ाई का ऐलान किया था और लाहौर पहुंच गए थे।<br />कुछ दिन तक ये सब घायलों को ही नहीं, देशभर के आहत लोगों को मजबूरी में सुनना होगा। कुछ स्कूलों के बच्चे मरने वालों की याद में धर्मस्थलों, सार्वजनिक स्थानों और समुद्र और अन्य नदियों के किनारे मोमबत्तियां जलाकर मृत आत्माओं की की शांति के लिए आयोजन करेंगे। टीवी और अखबार वाले जब पूरी व्यवस्था में खामियों और अफवाहों का जिक्र करते-करते थक जाएंगे, स्पेशल कमेंट देने वाले खूबसूरत और प्रतिष्ठित चेहरों के विचार सूख जाएंगे, तो सब कुछ भुला दिया जाएगा। कुछ घायलों की देर से होने वाली मौत खबर नहीं बन पाएगी। घायलों में अगर कोई जीवन भर के लिए अपाहिज हो गया होगा, तो उसको मुआवजा भी शायद ही मिले। अगले साल 26 नवंबर पर मरने वालों की बरसी मनाई जाएगी। इसी बहाने उनको याद कर लिया जाएगा, लेकिन घायल लोगों को तब भी शायद ही याद किया जाए।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-54989069111868290082008-11-21T10:32:00.000-08:002008-11-21T10:35:09.921-08:00सबके सब लाचार...<p>अमेरिका से शुरू हुई मंदी की मार भारत में भी पहुंच गई है। प्रधानमंत्री भरोसा दिला रहे हैं कि हमारा देश मंदी से मुकाबला करने में सक्षम है। हम इस पर पार लेंगे। यों भी मंदी हो या महंगाई सरकारों पर इससे खास फर्क पड़ता नहीं। उन्हें तो पांच साल के लिए जनता अपनी किस्मत का फैसला करने के लिए चुन ही लेती है। उनका काम आंकड़ेबाजी में देश को उलझा देना भर रहता है। आश्चर्य की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री महंगाई की दर 12 फीसदी से ऊपर पहुंचने पर भी विकास दर आठ फीसदी रहने का आश्वासन देते थे। आज विश्वव्यापी मंदी के दौर में वह इससे पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। यह तब जब दुनिया के ज्यादातर देशों में यह दर चार फीसदी के आसपास आ गई है। </p><p>प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री भी हैं। वह वित्त मंत्री से पहले रिजवर् बैंक के गवर्नर भी रह चुके हैं। बतौर प्रधानमंत्री उनके काम करने के तरीके पर व्यंग्य भले ही कितने भी किए गए हों, सवाल कम ही उठे हैं। लेकिन महंगाई और मंदी के बाद उनके बयानों पर विश्वास आर्थिक क्षेत्र के दिग्गज भी नहीं कर पा रहे हैं। यह अनायास नहीं है। शेयर बाजार लगातार गिरता ज्यादा है, संभलता कम। कच्चे तेल के मूल्य में कमी आ रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां छंटनी कर रही हैं। लोग डरे-सहमे हुए हैं। माना कि ऋणं कृत्वां घृतमं पिवेत... की सोच देने वाले चार्वाक के भारत में मितव्ययता की प्रवृत्ति है। यहां लोग चार पैसा कमाते हैं, तो आने वाले दिन के लिए एक पैसा सहेज कर रखते हैं। </p><p>लेकिन ध्यान रहे कि मनमोहन सिंह के वर्ष 1991 की नरसिंहराव सरकार में वित्त मंत्री बनने के बाद से देश में उदारीकरण की बयार चल निकली थी। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए के शासनकाल में इसका दूसरा दौर शुरू हुआ था। बाद में प्रधानमंत्री बनने पर मनमोहन सिंह ने इसे और गति दे दी। बैंकों ने कर्ज देने में कंजूसी नहीं की। लोन चाहिए। कुछ औपचारिकताएं पूरी करिए। मकान के मालिक बन जाइए। कार खरीद लीजिए। लोगों ने पर्सनल लोन लेकर शेयर खरीद लिए। कुछ सयानों ने फिक्स्ड डिपाजिट कर दी। इस जाल रूपी सुविधा ने आम आदमी में संचय की प्रवृत्ति को रोक दिया। अब बाहर से चमकने वाले लोग कितने कर्ज में लदे हुए हैं,अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसीलिए महंगाई को लेकर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया ही आकर रह गईं। कहीं कोई जन आंदोलन नहीं हुआ। कभी दिल्ली की सरकार को हिला देने वाले प्याज की महंगाई अब आम आदमी को हो सकता है, याद भी न रही हो। उत्तर प्रदेश में आलू किसान अब मंदी की मार झेल रहा है। किसानों ने कोल्ड स्टोरों से आलू निकालने पर उतनी कीमत तक नहीं निकल रही है कि वे उसे बेचकर उसका किराया भी अदा कर सकें। किसे चिंता है। </p><p>यूपीए सरकार तो लोकसभा चुनाव की तैयारियों में लगी हुई है। केंद्रीय कर्मचारियों की तनख्वाह बढ़ गई है। उनकी छंटनी न करने का भरोसा दिया जा रहा है। केंद्र को मालूम है कर्मचारियों की नाराजगी की मतलब। संभव है कि एक-दो महीने में पेट्रोल-डीजल की कीमतें भी कम कर दी जाएं। जिस दिन ये हो, समझ लेना कि दो महीने में चुनाव हो जाएंगे। वैसे भी लोकसभा के चुनाव मई में होने ही हैं। तो फिर आते हैं,मुद्दे की बात पर। मनमोहन सिंह चुनावी भाषण की तैयारी करने लगे हैं। इसमें परमाणु करार का मुद्दा शायद ज्यादा लोगों को समझ नहीं आएगा। मंदी के बादल छंटे नहीं। महंगाई फिर सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी होगी। </p><div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-62830017476201016802008-11-14T10:57:00.000-08:002008-11-14T11:01:42.596-08:00हम तो आहत हैं...<span style="font-family:times new roman;">दुनियाभर को सहिष्णुता का संदेश देने वाले भारत में सेना और साधु-संतों के आतंकवाद के घिनौने कृत्य में संलिप्तता के सबूत मिलने से प्रत्येक व्यक्ति आहत है। रोज-रोज हो रहे नए खुलासे सोचने को मजबूर कर रहे हैं। लेकिन क्या सोचेंगे। देश की जनता अभी तक उन मठाधीशों की ही असलियत नहीं जान पाई है,जो जाति और धर्म के नाम पर बरसों-बरस से लोगों को छल रहे हैं। धर्म को तथाकथित ठेकेदारों ने अपना बंधक बना लिया है। रूप अलग-अलग हैं, लेकिन इन्हें नेताओं का भरपूर प्रश्रय मिला हुआ है। आज साध्वी प्रज्ञा,स्वामी अमृतानंद उर्फ दयानंद पांडेय उर्फ सुधाकर द्विवेदी का नाम सामने आ गया है,तो फिर से चर्चाएं चलने लगी हैं, लेकिन कितने दिन चलेंगी। विधानसभा चुनाव हो जाने दीजिए। यह खत्म हो जाएगा। छह दिसंबर,1992 और क्या उससे पहले इसकी बुनियाद नहीं पड़ गई थी। मंडल आयोग की सिफारिशों ने हिंदुओं के बीच कलह नहीं बढ़ाई थी। आज की अधेड़ पीढ़ी तब युवा थी। उसने जाति-धर्म की दीवारों को काफी हद तक तोड़ दिया था। उसके दिमाग में दलित और सवर्ण को अलग- अलग करने की बातें कम ही आती थीं। इन सबके पीछे राजनीतिज्ञ थे, सो हर आदमी उसी के हिसाब से तर्क कम कुतर्क ज्यादा देने लगा। विचार करके देखिए। यह राजनीतिक बात है। देश में उसके बाद से ही बहुजन समाज पार्टी का दबदबा बढ़ता है और वामपंथी हाशिए पर चले जाते हैं। ताज्जुब की बात है। इस पर फायरब्रांड प्रवीण तोगड़िया जी चुप्पी साधे हुए हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस पर अपनी बात नहीं कह रहे हैं। जम्मू कश्मीर में भी नब्बे के दशक में आतंकवाद तब बढ़ा, जब मौलाना और मौलवी ही नहीं, धर्मगुरु भी वहां के आवाम को उकसाने लगे। कितने लोग जानते हैं कि जम्मू कश्मीर में सबसे पहले भूमि सुधार कानून लागू किए गए। सबसे ज्यादा सेक्युलर राज्यों में उसकी गिनती होती है। कश्मीर में मुसलिम समाज की प्रगतिशील सोच देखिए कि वहां एक से अधिक शादियों को अच्छा नहीं माना जाता। दक्षिण भारत के एक शंकराचार्य पर हत्या का मुकदमा किस बात की ओर इशारा करता है। इतिहास गवाह है कि इस देश के नौजवानों को नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने यह कहकर ही एकजुट किया था कि तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। महात्मा गांधी से बड़ा सोशल इंजीनियर कौन हुआ है आज तक दुनिया में। संचार के गिने-चुने साधनों के बावजूद बापू की एक आवाज आदेश बन जाती थी। उस पर अमल होता था। चाहत तो आजादी की थी। आज भी जरूरत है आजादी की। एक नए किस्म की आजादी की। कारण, हिंदू समाज को बसुधैव कुटुंबकम और सर्वे भवंतु सुखिना, सर्वे संतु निरामया की सोच को सार्थक करना है।<br /></span><div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-32006204163421588802008-11-12T10:06:00.000-08:002008-11-12T10:09:17.483-08:00बच्चों का एक ही दिन क्यों<span style="font-family:verdana;">14 नवंबर क्या आया, सभी को बच्चों की याद आने लगी। उनके सुख-दुख पर चिंता जताने के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रम आयोजित किए जाने की तैयारियां चल रही हैं। यह कितनी गंभीर बात है कि जहां नौनिहालों को स्कूल में बुलाने के लिए मिड-डे मील जैसी योजनाएं चलाई जाती हैं, वहां बच्चों के मां-बाप इसमें खास दिलचस्पी नहीं ले रहे। इसका फायदा स्कूलों के मास्टर साहब खुलेआम उठा रहे हैं। प्रशासन के अधिकारी भी इसमें पीछे नहीं हैं। भ्रष्टाचार की बहती गंगा में उनके लिए हाथ धोना कोई नई बात नहीं है। करीब दो साल पहले 14 साल के कम उम्र के बच्चों को घरेलू काम करने पर पाबंदी का नियम बनाया गया था, पर उसका क्या हुआ। उस आदेश पर मानीटिरंग कमेटियां बनीं। लिखा-पढ़ी के साथ-साथ खूब तमाशा हुआ। पर सोचने की बात यह है कि इस पर ध्यान किसने दिया। समाज के सबसे बड़े ठेकेदार यानी नेता भी इस मुहिम में सामने नहीं आए। उल्टे आज चार राज्यों में हो रहे चुनाव में पोस्टर-बैनर लगाने के काम में सबसे ज्यादा यही बच्चे लगे हुए हैं। बिडंवना तो यह है कि बाल दिवस को 14 नवंबर को मनाया जाता है। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का यह जन्मदिन भी है। बच्चे फैक्ट्रियों में काम कर रहे हैं। वजह, उन्हें अपने परिवार का पेट पालना है। बच्चों का यह हाल उस प्रधानमंत्री के देश में है, जो बच्चों को बेइंतहा प्यार करता था। बच्चे जिन्हें प्यार से चाचा कहते थे। कभी-कभी तो लगता है कि अगर बाल दिवस पहले प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर न मनाया जाता, तो अब तक इसे मनाना ही बंद कर दिया गया होता। ताज्जुब की बात है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बालकों की खरीद-फरोख्त, उनके साथ अप्राकृतिक यौनाचार, उनके मादक पदार्थों के धंधे में इस्तेमाल किया जाता है और औसत हिंदुस्तानी सिनेमा हाल में आमिर खान की फिल्म तारे जमीं पर देखकर रोते हुए निकलता है। भूतनाथ में एक बच्चा ही है, जो अतृप्त आत्मा को इस दुनियादारी से मुक्ति दिलाता है। बच्चे हमारे लिए क्या कर रहे हैं और हम। कल जब बच्चे बड़े होकर इसका जवाब मांगेगे, तो हमें अपना मुंह छिपाना पड़ेगा। बड़े इसे अपने कुतर्कों से जनरेशन गैप भी करार दे सकते हैं। क्या जरूरी नहीं कि हम इस बार के बाल दिवस से अपने और अपने पड़ोस के एक बच्चे के बारे में कुछ करें। पता नहीं, इनमें से बागवान का आलोक बनकर हमारे काम आ जाए। यह भी ध्यान रखिए कि बच्चे मन के सच्चे होते हैं। इन्हें अपना अभावों में गुजरा बचपन ही नहीं, उस दौर के छोटी मदद करने वाले, आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने वाले हमेशा याद रहते हैं। </span><div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-25374160911085575282008-11-11T10:57:00.000-08:002008-11-11T10:59:39.121-08:00आभार, नमस्कारमेरे ब्लाग पर आने के लिए जिन लोगों ने स्वागत किया उनका बहुत-बहुत आभार। जिन्होंने नहीं किया उनको नमस्कार। शायद अभी मेरे नए-पुराने कई साथियों को यह पता ही नहीं है कि मैं भी ब्लागरों की विरादरी में शामिल हो गया हूं। बावजूद इसके बेहिचक सुझाव देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मान लिया कि राजनीतिक आलेख ही नहीं लिखूंगा। समाज से जुड़े और भी विषय हैं। रोजाना लिखने की कोशिश में हूं।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-38169233439548278762008-11-06T03:46:00.000-08:002008-11-06T10:45:27.808-08:00अमेरिका में चुनावअमेरिका में चुनाव हो गए। बराक हुसैन ओबामा ने रिकार्ड बनाते हुए जीत हासिल कर ली। ये तो होना ही था। इसमें कुछ नया नहीं है। इस चुनाव में नया यह है कि दुनिया के सबसे पुरानी लोकतांत्रिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए इस बार वहां की जनता ने बड़े उत्साह से वोट डाले हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि मतदान में युवा वर्ग की हिस्सेदारी 60 फीसदी से अधिक रही। इसे रिपब्लिकन जार्ज बुश की नीतियों के प्रति नाराजगी ही न माना जाए। नई पीढ़ीं में वोटिंग को लेकर उत्साह को लोकंतत्र के प्रति आस्था के तौर पर क्यों नहीं देखा जाना चाहिए। <br />इसके उलट भारत में वोटिंग को लेकर हर उस व्यक्ति की रुचि घटती जा रही है, जो खुद के जागरुक होने का दावा करते हुए नियम-कानून के पालन करने वालों में सबसे ऊपर रखता है। आपातकाल और 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद हुए चुनाव में जरूर भारी मतदान हुआ। बाद के चुनावों में मतदान के आंकड़ों से तो यह नहीं लगता कि भारतवासियों को लोकतंत्र में विश्वास रह गया है। देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली तक का हाल बुरा है। जब से दिल्ली में विधानसभा का गठन हुआ है, तीन बार चुनाव हो चुके हैं। शायद ही कभी मतदान 50 फीसदी से ज्यादा गया हो। <br />सरकारों और चुनाव आयोग का इसका अहसास है। एक दिन टीवी पर दिखाया जा रहा था कि दिल्ली में मतदान में भाग लेने के लिए मुहिम चलाई जा रही है। कहा जा रहा है कि मतदाता पहचान पत्र आपके बैंक एकाउंट खोलने, ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने, पासपोर्ट हासिल करने के लिए ही नहीं है। इसका इस्तेमाल वोट डालने के लिए भी करें। देख-सुनकर अच्छा लगा कि अगर लोगों को एेसे ही कुछ और अहसास दिलाए गए, तो मतदान का प्रतिशत बढ़ जाएगा। क्या सरकार कानून बनाकर मतदान को हर नागरिक के लिए जरूरी करने के बारे में नहीं सोचेगी।<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-91788640676973135052008-10-19T11:52:00.001-07:002008-10-19T11:57:11.270-07:00जम्मू कश्मीरआखिरकार जम्मू कश्मीर में चुनाव की घोषणा हो ही गई। चुनाव के मुद्दों की जमीन वहां पहले से ही तैयार हो चुकी है। वर्ष,2002 में वहां जो चुनाव हुए थे, उनके बारे में कहा जाता है कि एक अरसे बाद स्वतंत्र और निष्पक्षता की कसौटी पर यह चुनाव खरे उतरे थे। लेकिन इस बार के चुनावों की एक अहम कसौटी यह भी होगी कि यह आतंकवाद के नाम पर लड़े जाएंगे या फिर राष्ट्रवाद के नाम पर। अमरनाथ भूमि विवाद ने एक और पेंच खड़ा कर दिया है, वह हिंदू बनाम मुसलमान का। नब्बे के दशक से पूरा राज्य और खासतौर पर कश्मीर घाटी आतंकवाद से जूझती रही है। वहां पर जम्मू बनाम कश्मीर की जंग चलती रही है, पर हिंदू-मुसलमान के मामले आमने-सामने के तौर पर नहीं देखे गए। अब क्या होगा यह देखने की बात होगी<div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5990779498322948713.post-51556978738618218862008-09-29T23:56:00.000-07:002008-09-29T23:57:57.736-07:00नवरात्र की बधाई।<span style="color:#ff0000;"><span class="blsp-spelling-error" id="SPELLING_ERROR_0">नवरात्र</span> की बधाई। शक्ति के <span class="blsp-spelling-error" id="SPELLING_ERROR_1">आगमन</span> के साथ ही मैं अपनी सरस्वती को दुनिया की <span class="blsp-spelling-error" id="SPELLING_ERROR_2">जुबान</span> देना चाहता हूं। यानी की ब्लॉग की दुनिया में प्रवेश। इस प्रवेश को आप किस रुप में लेंगे यह आप पर है।</span><div class="blogger-post-footer">¥æÁ× ¹æÙ ·¤è ¹ÕÚU ¥æñÚU ȤæðÅUæð 11Ñ15 ÂÚU ç×ÜèÐ §â â¢S·¤ÚU‡æ 40 ç×ÙÅU ÎðÚU âð ÀêUÅUæÐ</div>प्रदीप मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/03608225774750908417noreply@blogger.com1