बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

जय हो, कुख्यात हो गए...

एनडीटीवी के रवीश कुमार ने आज के हिन्दुस्तान में ब्लागर योगेश जादौन के ब्लाग बीहड़ के बारे में विस्तार से चर्चा की है। नहीं जानते जादौन साहब को। अरे वही, जो आजकल अमर उजाला आगरा में हैं। अपने ब्लाग पर वह छक्के लगाने से पहले नामी-गिरामी अखबारों के साथ जुड़े रहकर सिक्का जमा चुके हैं। डकैत-बदमाशों के बारे में लिखते-लिखते शरीफ जादौन साहब भी कुख्यात हो गए हैं। कहते हैं न- बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा। मुझे तो ब्लाग का ककहरा जादौन साहब ने ही सिखाया है। आप उन्हें बधाई देने से पहले उनके ब्लाग का एक चक्कर लगा लीजिए। फिर रवीश जी का आलेख पढ़िए आज के दैनिक हिन्दुस्तान में।
लगे हाथ मेरी मिट्टी के तेल के कारोबार से संबंधित चंद लाइनों पर भी गौर फरमा लें- अगर न होता मिट्टी के तेल का कारोबार। कितने लोग मिट्टी में मिल गए होते। मिट्टी के तेल के दाम मिट्टी से भी ज्यादा हैं। अधिकारी इन्हीं दामों का फायदा उठाते हैं। देश भर में डीलर बनाते हैं। बीपीएल कार्ड धारकों की यह मजबूरी है। वहां इससे ही रोटी बनना जरुरी है। इसकी एक और उपयोगिता है। पेट्रोल से इसकी प्रतियोगिता है। गरीब या अमीर महिला जब जान देती है या उसको जलाया जाता है। जलने-जलाने वाले मितव्ययी हो जाते हैं। वे पेट्रोल नहीं,केरोसिन आयल ही आजमाते हैं।

बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

कभी-कभी मेरे दिल में...

अपने अध्ययनकाल में मैंने डॉ. श्याम सिंह शशि की एक कविता पढ़ी थी। पूरी कविता तो याद नहीं, लेकिन चार लाइनें- परिचित हुआ, किसी का ना रहा। काश, अपरिचित ही रहता मैं। मन में आज भी मौजूद हैं। बाद में कई बार सोचा कि एक किताब लिखूंगा, जिसमें कविताएं भी होंगी। आज तक तो लिखने का ही मुहूर्त नहीं निकल पाया है। आगे देखते हैं, क्या होता है। ज्योतिषियों की माने तो मुझे कई किताबें लिखनी हैं।
तो बात ब्लाग शुरू करने के बाद की। मैं जब भी कोई ब्लाग पढ़ता हूं, तो उसके लेखक/ब्लागर के प्रोफाइल के बारे में जानने की इच्छा स्वाभाविक रूप से जागती है। मेरे ब्लाग को पढ़ने वालों ने भी मेरे बारे में जानना चाहा। हिट्स इसे साबित करती हैं। मैं उसमें क्या लिखूं। दूसरों के लिए जो आम है, वह हमारे लिए खास है। खुला खेल फरुक्खाबादी की तर्ज पर मैं अपने बारे में बताना चाहूंगा। ऐसा सच सामान्य है। और भी लोगों का होगा। बहरहाल, पद्य की शक्ल में एक बानगी देखिएः
माता-पिता ने जीवन भर कष्ट सहे
इसीलिए हम उनके साथ कभी नहीं रहे
पढ़ाई बढ़ती गई
जमीन बिकती गई
जमाने से टकराने को कई बार अड़े
गिरे-पड़े, हो गए अपने पैरों पर खड़े
एक दिन नौकरी लग गई
पड़ोसियों में भी आस जग गई
उन्होंने जब पूछा- पता और ठिकाना
मैंने बना दिया कोई न कोई बहाना
एक दिन वे बिना बताए आ गए
कुछ दिन रुके और सारा राशन खा गए
मैं उनके काम में कोई मदद नहीं कर सका
उन पर कोई अहसान नहीं धर सका
वापस लौट उन्होंने सारी पोल खोल दी
पूरे खानदान की हैसियत तौल दी
मां-बाप को बहुत बुरा लगा
मैं सिद्धांतवादी, मुझे बेसुरा लगा
फिर भी कुछ नहीं कर पाया
झट से कोने में मुंह छिपाया
अपनी लाचारी पर रोया बार-बार
क्यों नहीं कर पाया उपकार
यह तो अतीत था। भविष्य की कल्पना पर ध्यान दें। अनुमान लगाएं कि ये काम कौन सा हैः
आज देखता हूं कि काम कराने वाला ही कर्मठ होता है
ऐसे हर आदमी का एक मठ होता है
मठ में दिखावा होता है
उसमें चढ़ावा होता है
जो लेकर आता है, खोता है
खाली हाथ वाला रोता है
देखते-देखते मैं भी हो गया हूं दयावान
जानवर जैसे इनसानों का भगवान
अब हजारों आते हैं
मैं-मेरे लोग काम कराते हैं
छोटी-मोटी कई बीमारियां हो गई हैं
बीवी-बेटा और बच्चियां कहीं खो गई हैं
अपने बजाय किसी और की स्थापना में चापलूसी लगेगी
अच्छी बात यह है कि कइयों में बड़ी उम्मीद जगेगी
अब आपको अपने वर्तमान के बारे में बताते हैंः
व्यथित है हिमालय धरती में है वेदना
चिंताएं हमारी बढ़ गई, नहीं बढ़ी चेतना।
योग हमने छोड़ा, पहली पसंद हुआ क्रिकेट खेलना
फिर भी सीखा नहीं हार को देखना-झेलना।
राजनीति सबसे बुरी, आसानी से कह दिया
पर छोड़ा नहीं हमने नेताओं के आगे लेटना।
स्वार्थ में हमने दूसरों को गले लगा लिया
शर्म गायब, जब शुरू किया अपनों के जख्म कुरेदना।
रावण के सारे तीर हमने चुरा लिए
अपुन का इरादा है राम की मर्यादा को भेदना।
लोगों में छबि इतनी हो गई है अच्छी-खराब
छोटों को नसीहत देते हैं-सच बोलना है मना।

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

मन जब अस्थिर होता है...

करीब एक महीने से ब्लाग से रिश्ता थोड़ा कमजोर पड़ गया था। वजह कुछ खास नहीं है। हां, इस दौरान मैंने अपनी कवितानुमा चंद लाइनें तलाश लीं। हालांकि कुछ जगह मैंने पढ़ रखा है कि जब आदमी कुछ और नहीं कर पाता है, तो कविता-कहानी लिखने लगता है। मैं इससे कभी सहमत नहीं हो पाया। बावजूद इसके इस मुद्दे पर बहस में मेरी रुचि नहीं है। मेरी मान्यता है कि सोचने और उसको लिखने से ज्यादा कठिन कोई काम नहीं है।
बहरहाल, लाइनों पर गौर फरमाएं-
अनवरत आते हैं नए विचार
करते हैं आपस में व्यभिचार
जब नहीं हो पाते हैं सहमत
किसी पर भी मढ़ते हैं तोहमत।
इससे मिलती-जुलती लाइनें कुछ इस तरह हैं-
अपने मन का सोचा दूरंदेशी लगता है
हर समस्या के निदान पर संदेशी लगता है
लेकिन अपना कुछ खोने का डर सताता है
यही मन झटके से बचने की राह बताता है
अब बात करते हैं उन शब्दों की जिनको कई लोग अपशब्द नहीं मानते। उनके चाटुकार कहते हैं कि यह तो उनके प्यार का स्टाइल है। संभवतः इसका कारण है-
कुछ सुनने को नहीं हम तैयार
हमे पशुओं से है बेहद प्यार
वजह, दिन-रात, चौबीस घंटे
हम खुद बार-बार वही होते हैं यार
तो बात गधे (कामकाजी और दुनियादरी वाले लोगों के बीच अति कामन शब्द) से शुरू करते हैं-
घर-बाहर जो हर जगह निष्ठा से बंधा होता है
बड़ों से छोटों तक की नजरों में गधा होता है
जब तक उसने कुछ को कहीं का नहीं छोड़ा
जमाना उसे नहीं मानता उसे घोड़ा
क्या करें, हमारे जैसे कई लोग एक से ही सधे हैं
इसलिए हम फिक्र नहीं करते कि हम गधे हैं
सुअर के बारे में मेरा मानना है-
हम मुंह जरूर मारते हैं इधर-उधर
बावजूद इसके नहीं पालते सुअर
क्योंकि सुअर का बच्चा प्यारा होता है
बड़ा सुअर तो पक्का आवारा होता है
अगर इन लाइनों पर लालित्य और साहित्य से वंचित मेरे जैसे व्यक्ति के बारे में आलोचना, प्रशंसा या फिर रस्मी टिप्पणियां आती हैं, तो अगली बार कुछ और पशुओं की बात करेंगे। लेकिन याद रखिए-जानवर घर-जंगल में रहते हैं, उनके क्या कहने
आदमियत खो गई, ताने पड़ रहे उसको सहने