सोमवार, 27 सितंबर 2010

मंगल भवन अमंगल हारी...

28 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या से जुड़े मामले की सुनवाई हो रही है। सुप्रीम कोर्ट बताएगा कि इस मामले में सुलह की गुंजाइश क्या-क्या हो सकती है। लेकिन देखना यह है कि इसमें कितने पक्षकार उपिस्थत होते हैं। यदि सभी पक्षकार मंगलवार को मौजूद होते हैं, तो माना जा सकता है कि अभी इस मामले में बातचीत का रास्ता ही अंतिम हो सकता है, अन्यथा की स्थिति में पक्के तौर पर कोई कुछ नहीं सकता है।
किताबों में पढ़ा है। अयोध्या माने अवध। यहां कोई वध नहीं हुआ। फिर इसके लिए कई वर्ष से चली आ रही जद्दोजहद, पेशबंदी, बेचैनी, भय, असुरक्षा, हिंसा, खून-खराबा, अदालती हस्तक्षेप, बातचीत, अलग-अलग वादे-इरादे क्यों हो रहे हैं। अब तो भारत दुनिया की महाशक्ति बनने की ओर बढ़ रहा है, तो भी हम हिंदू-मुसलमान, अगड़े-पिछड़े के पाट में पिस रहे हैं।
बहुत लोगों को याद होगा। 1989 का आरक्षण विरोधी आंदोलन और 1992 का मंदिर आंदोलन। दोनों से देश को क्या मिला। पिछड़ों को आरक्षण से अगड़ों की प्रतिभा प्रभावित हो गई या फिर अयोध्या में भव्य मंदिर बन गया। मंडल के मसीहा वीपी सिंह को आज कितने लोग याद करते हैं। रथयात्रा निकालने वाले लाल कृष्ण आडवाणी आज अपनी ही पार्टी में कहां हैं। परिंदों के भी पर रोकने का दावा करने वाले मुलायम सिंह यादव और आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद खुद-ब-खुद शौर्य चक्र हथियाने वाले लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक हालत किसी से छिपी नहीं है। उस समय की साध्वी ऋतंभरा आज दीदी मां बनकर आश्रम चला रही हैं, तो उमा भारती भाजपा में वापसी के लिए छटपटा रही हैं। विहिप के अशोक सिंघल और भाजपा के विनय कटियार को वृंदावन के सुरेश बघेल की कोई फिक्र है। बघेल को 1990 में अयोध्या के विवादित स्थल पर डायनमाइट की छड़ लगाते पकड़ा गया था। अब यही बघेल एक भाजपा सांसद की चाकरी कर रहा है। उस गरीब की बच्ची ऋतंभरा की ओर से संचालित संविद स्कूल में प्रवेश के लिए बेचैन है।
इसी तरह एक समय समूचे मुसलिम समाज की नुमाइंदगी करने वाले शहाबुद्दीन को उनकी कौम कितना जानती है। जफरयाब जिलानी पक्षकार के नाते जाने जाते हैं।
23 सितंबर को हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मेरे एक पढ़े-लिखे परिचित ने दावे के साथ कहा था। ठीक रहा। शुक्रवार को ज्यादातर फैसले मुसलमानों के पक्ष में होते हैं। शुक्रवार को भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच का नतीजा भी पाकिस्तान के पक्ष में होता है। चूंकि आंकड़े नहीं मालूम थे, इसलिए बहस का मतलब नहीं था। इस बहाने एक मानसिकता का खुलासा हुआ। अब देश की सबसे बड़ी अदालत में मंगलवार को सुनवाई हो रही है। सो इस बारे में उनसे कल की सुनवाई के बाद बात की जाएगी। देखेंगे वह क्या तर्क देते हैं।
देश और उत्तर प्रदेश के लोग चाहते हैं कि अब इस मामले का फैसला हो जाए। यह ठीक है। सवाल यह है कि क्या पक्षकार भी यही चाहते हैं। क्या इन्हीं मुद्दों पर राजनीति की रोटी सेंकने वाले भी यही चाहते हैं। चुप्पी से कुछ नहीं होगा। बोलना नहीं कुछ करना पड़ेगा। दोनों पक्ष थोड़ा-थोड़ा भी नरम पड़े, तो हो सकता है कि हम एक नया इतिहास लिख दें। भारत में कई बार इतिहास अनायास बन जाता है। एक बार कोशिश करने में क्या जाता है। शायद 1992 का कलंक खत्म हो जाए। इसीलिए ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चयनित शायर शहरयार के शब्दों में कह रहा हूं-बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए...।

2 टिप्‍पणियां:

falsafa ने कहा…

supreme court ne bhi apna faisla sune diya. high court ke faisle ka intezar hai. vishwas hai ki court bhe manega ki vivadit sthal par mandir he tha. do din ke bad pura mamla saaf ho jayega.
sir 1 gujarish hai, likhte rahiye.
jai sree ram.

सूर्य गोयल ने कहा…

गुफ्तगू की ओर से ब्लॉगर साथी प्रदीप जी को वैवाहिक वर्षगाँठ पर हार्दिक शुभकामनाये और बधाई. कभी समय मिले तो मेरी गुफ्तगू में अवश्य शामिल हो.
www.gooftgu.blogspot.com